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(१८७) जन कार्य जाणिकरि परिमाण करै है सो पहला गुणव्रत है. पहले पांच अणुव्रत कहे तिनिका ए गुणव्रत उपकारी है. इहां गुण शब्द उपकारबाचक लेणा सो लोभके नाश करनेकौं जैसैं परिग्रहका परिमाण करै तैसे ही लोभके नाश करनेकौं भी दिशाका परिमाण करै. जहांताई परिमाण कीया ताके परैं जो द्रव्य आदिकी प्राप्ति होती होय तौऊ तहां . जाय नाही. ऐसे लोभ घट्या. बहुरि हिंसाका पापभी परिमाण परौं न जानेरौं तहां सम्वन्धी न लागै, तब तिस सम्बन्धी महाव्रत तुल्य भया ॥ ३४१-३४२॥
अब दूसरा गुणव्रत अनर्थदंड विरतिकू कहै हैं,कजं किंपि ण साहदि णिचं पावं करेदि जो अत्थो सो खलु हवे अणत्थोपंचपयारो वि सो विविहो ३४३
भाषार्थ-जो कार्य प्रयोजन तो अपना किछ साधे नाहीं घर केवल पापहीकौं उपजावै ऐसा कार्य होय ताकौं अनर्थ कहिये. सो पांच प्रकार है तथा अनेक प्रकार भी है. भावार्थ, निःप्रयोजन पाप लगावै सो अनर्थदंड है सो पांच प्रकार करि कहै हैं. अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान, दुः. श्रुतश्रावणादि बहुरि अनेक प्रकार भी है ॥ ३४३ ॥ __ अब प्रथम भेदकू कहै हैं,परदोसाणं गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थीआलोओ परकलहालोयणं पढमं ।। ३४४॥