________________
(१७९) जो बास्त्रमें त्यागने योग्य कहे तातें छोडने, परिणाममें राग मिटै नाही त्यागके अनेक आशय होय हैं सो याकै अन्य प्राशय नाही केवल तीवू कषायके निमित्त महापाप जानि त्यागै है इनिकं त्यागे ही आगामी प्रतिमाके उपदेशयोग्य होय है. वृती निःशल्य कह्या है सो शल्परहित त्याग होय है ऐसे दर्शनप्रतिमाघारी श्रावकका स्वरूप कह्या ॥ २३० ॥
आगे दुजी व्रतप्रतिमाका स्वरूप कहै हैं,पंचाणुव्वयधारी गुणवयसिक्खावएहिं संजुत्तो । दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावओ होदि ३३०
भाषार्थ-जो पांच अणुब्रतका धारी होय बहुरि गुणव्रत तीन अर शिक्षाबत च्यारि इनिकरि संयुक्त होय बहुरि दृढचित होय बहुरि समभावकरि युक्त होय बहुरि ज्ञानवान होय सो व्रत प्रतिमाका धारक श्रावक है. भावार्थ-इहां अणु शब्द अल्पका बाचक है जो पंच पापमें स्थूल पाप हैं तिनिका त्याग है. तातें अणुव्रत संज्ञा है. बहुरि गुणव्रत अर शिक्षाव्रत तिनि अणुव्रतनिकी रक्षा करनहारे हैं तात अणुव्रती निनिकू भी धारै हैं. याकै प्रतिज्ञा व्रतकी है सो दृढचित्त है कष्ट उपसर्ग परीषद भाये शिथिल न होय है. ब. हुरि अप्रत्याख्यानावरण कषायके प्रभावतें ये व्रत होय है. अर प्रत्याख्यानावरण कषायक मन्द उदय होय हैं. ताते उपशमभाव सहितपणा विशेषण कीया है. यद्यपि दर्शनप्रतिमा धारीके भी अप्रत्याख्यांनावरणका अभाव नौ भया है.