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(१७० ) होय. बहरि तिनि गुणनिके धारक जे उत्तम साध विनिके विनयकरि संयुक्त होय, बहुरि भाप समान जे सम्यग्दृष्टी साधर्मी तिनिविष अनुरागी होय, वात्सल्यगुणसहित होय, सो उत्तम सम्यग्दृष्टी होय है. ए तीणू भाव न होंय तौ नानिये याकै सम्यक्त्वका यथार्थपणा नाही ।। ३१५ ॥ देहमिलियं पि जीवणियणाणगुणेण मुणदिजो भिषणं जीवमिलियं पि देहं कंचुअसरिसं वियाणेई ॥३१६॥
भाषार्थ-यह जीव देहतै मिलि रहा है तौऊ अपना ज्ञानगुण जाणे है. तातै प्राप• देह भिन्न ही जाणै है. बहुरि देह जीव मिलि रहा है तोऊ ताकं कंचुक कहिये कपडेका जामासारिखा जाणै है जैसे देहत जामा भिन्न है तैसे जीवतै देह भिन्न है. ऐसें जाणै है॥ ३१६ ॥ णिज्जियदोसं देवं सव्वाजवाणं दयावरं धम्म । वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदिसो हु सददिठ्ठी ३१७ ____ भाषार्थ-जो जीव दोषवर्जित तौ देव माने बहुरि सर्व जीवनिकी दयाकं श्रेष्ठ धर्म मान. बहुरि निग्रन्थ गुरुवं गुरु मानै सो प्रगटपणे सम्यग्दृष्टी है. भावार्थ-सर्वज्ञ वीतराग अ. ठारह दोषनिकरि रहित देवकू माने, अन्य दोषसहित देव हैं तिनिळू संसारी जारी, ते मोक्षमार्गी नाहीं, ऐसा जानि बंदै पूजे नाही. तथा अहिंसारूप धर्म जानै, यज्ञादि दे. क्वानिकै अर्थ पशुपातकरि चढावै वाकू धर्म माने हैं. विसकों