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(१७१) पाप ही जानि आप तिसविष नाहीं प्रवर्ते. बहुरि जे ग्रन्थ. सहित अनेक भेष अन्यमतीनके हैं तथा काल दोषतें जैनमतमें भी भेष भये हैं तिनि सर्वनिकौं भेषी पाषंडी जान, वंदै पूजे नाही. सर्व परिग्रहत रहित होय तिनिहीकू गुरु मानि बन्दै पूज, जातें देव गुरु धर्मके प्राश्रय ही मिथ्या सम्यक उपदेश प्रवत है. सो कुदेव कुधर्म कुगुरुका बन्दना पूजना तो दूर ही रहौ तिनिके संसर्गहीत श्रद्धान विगडै है. तातै सम्यग्दृष्टी तिनिकी संगति भी न करे । स्वामी समन्तभद्र भाचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें ऐसे कया है, जो सम्यग्दृष्टी है सो कुदेव कुत्सित आगम पर कुलिंगी भेषी तिनिक भयते तथा किछू पाशाते तया लोभतें भी प्रणाम तथा तिनिका विनय न करै इनिका संसर्गत श्रद्धान विगडै है, धमकी प्राप्ति तो दुरि ही रहौ. ऐसा जानना। ___ आगे मिथ्यादृष्टी कैसा होय सो कहै हैं,दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइसंजुदं धम्म । गंथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुट्ठिी ३१८
भाषार्थ-जो जीव दोषनिसहित देवनिक तौ देव माने बहुरि जीवहिंसादिसहितकं धर्म मान, बहुरि परिग्रहकेविष आशककं गुरु मानै, सो प्रगटपणे मिथ्यादृष्टी है. भावार्थभाव मिथ्यादृष्टी तौ अदृष्ट छिप्या मिथ्याती है. बहुरि जो कुदेव राग द्वेष मोह आदि अठारह दोषनिकरि सहितकं देव मानिकरि पूजे बन्दै हैं, अर हिंसा जीवघात प्रादिकरि धर्म