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( १७३) भाषार्थ-सम्यग्दृष्टी ऐसे विचारै जो व्यंतर देव ही भक्तिकरि पूज्या हवा लक्ष्मी दे है तौ धर्म काहेकू कीजिये. भावार्थ-कार्य तौ लक्ष्मी” है सो व्यंतर देव ही पूजेते लक्ष्मी दे तो धर्म काहेकू सेवना ? बहुरि मोक्षमार्गके प्रकरणमें संसारकी लक्ष्मीका अधिकार भी नाहीं तातै सम्यग्दृष्टी तौ मोक्षमार्गी है. संसारकी लक्ष्मीकू हेय जानै है ताकी वांछाही न करें है. जो पुण्यका उदयतें मिलै तौ मिलौ, न मिलै. तौ मति मिलौ, मोक्षहीके साधनेकी भावना करै है. ताते संसारीक देवादिककू काहे• पूजै बन्दै ? कदाचित हू नाही' पूजै बन्दै ॥ ३२०॥
श्रागें सम्यग्दृष्टीकै विचार होय सो कहै हैं,जं जस्स जम्मिदेसे जेण विहाणेण जम्मि कालाम्मा णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ३२१ तं तस्स ताम्म देसे तेण विहाणेण ताम्म कालम्मि। को सक्कइ चालढुं इंदो वा अह जिणिंदो वा ३२२ ___भाषार्थ-जो जिस जीवकै जिस देशविषै जिस कालविपै जिस विधानकरि जन्म तथा मरण उपलक्षणते दुःख सुख रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञ देवनें जागया है जो ऐसे ही नियक करि होयगा, सो ही तिस प्राणीकै तिस ही देशमें तिसही कालमें तिस ही विधानकरि नियमतें होय है. ता इन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थकर देव कोई भी निवारि नाही सके है..