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(१५८) होय ताकू जाने है ताके भी समस्तपर्याय हैं तिनिळू नाही जाने है. भावार्थ-सर्वज्ञका अभाव मीमांसक अर नास्तिक कहै हैं ताकं निषेध्या है जो सर्वज्ञ न होय तो अतीन्द्रिय पदार्थकू कौन जानै ? जात धर्म अर अधर्मका फल अतीन्द्रिय है ताकं सर्वज्ञविना कोऊ नाहीं जानै तातें धर्म अर अधर्मका फलफू चाहता जो पुरुष है सो सर्वज्ञकू मानि करि ताके वचन” धर्मका स्वरूप निश्चय करि अंगीकार करौ ॥ ३०३॥ तेणुवइट्टो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो वारहभेओ दसभेओ भासिओ विदिओ ३०४ __भाषार्थ-तिस सर्वज्ञकरि उपदेस्या धर्म है सो दोय प्रकार है. एक तौ संगासक्त कहिये गृहस्थका अर एक असंग कहिये मुनिका. तहां पहला गृहस्थका धर्म तौ बारह भेदरूप है. बहुरि दुना मुनिका धर्म दश भेदरूप है ॥ ३०४॥
आगें गृहस्थके धर्मके बारह भेदनिके नाम दोय गाथा
सम्मदसणसुद्धो रहिओ मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइओ पव्ववई पासु आहारी ॥ ३०५॥ राईभोयणविरओ मेहुणसारंभसंगचचो य । कज्जाणुमोयविरओ उद्दिट्टाहारविरओ य ॥ ३०६॥
भाषार्य-सम्पग्दर्शन हैं शुद्ध जाकै ऐसा, १ मद्य आदि