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( १६२) असंख्यात तेतीवार उत्कृष्टपणे ग्रहण करै अर छोडे पीछे मुक्ति प्राप्ति होय ॥ ३१०॥
प्रागें ऐसे सप्त प्रकृतिके उपशम सय क्षयोपशमते उपज्या सम्यक्त्व कसैं जाणिये ऐसा तत्वार्थश्रद्धानकौं नव गाथानिकरि कहै हैं,जो तश्चमणेयतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहि । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटुं च ॥ ३११ ॥ जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं । सुदणाणेण णयहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२
भाषार्थ-जो पुरुष सप्तभंगनिकरि अनेकांत तत्त्वनिका नियात श्रदान करे, जाते लोकनिका प्रश्नके वश विधिनिषेधन वचनके सात ही भंग होय हैं तातै व्यवहारके प्रब
नेके अर्थि भी सातभंगनिका वचनकी प्रवृत्ति होय है. 4हुरि नो जीव अजीव आदि नवप्रकार पदार्थकौं श्रुतज्ञान प्रमाणकरि तथा तिसके भेद जे नय तिनिकरि अपना प्रादर मन उद्यमकरि मान श्रद्धान करै सो शुद्ध सम्यग्दृष्टी है. भावार्थ-वस्तुका स्वरूप अनेकांत है. जामें अनेक अंत कहिये धर्म होय सो अनेकान्त कहिये. ते धर्म अस्तित्व नास्तित्व एकत्व अनेकत्व नित्यत्व अनित्यत्व भेदत्व अभेदत्व अपेक्षात्व वैवसाध्यत्व पौरुषसाध्यत्व हेतुसाध्यत्व आगमसाध्यत्व अंतरगत्व बहिरंगत्व इत्यादि तो सामान्य हैं. बहुरि