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निका परस्पर विधिनिषेधर्तें सप्तभंगकरि वस्तु साधणा. एक कौं सर्वथा सत्यार्थ माने अर एककौं सर्वथा असत्यार्थ मान तौ मिथ्या श्रद्धान होय है, तातैं तहां भी कथंचित् जानना. बहुरि अन्य वस्तु अन्य विषै आरोपणकरि प्रयोजन साधिये है तहां उपचार नय कहिये है सो यह भी व्यवहारविषै ही गर्भित है ऐसें कहा है. जो जहां प्रयोजन निमित्त होय तहां उपचार प्रवर्त्ते है. घृतका घट कहिये तहां माटीका वडा श्राश्रय घृत भरया होय तहां व्यवहारी जननिकूं आधार आधेय भाव दीखें है ताकूं प्रधानकरि कहिये है, जो घृतका घडा है ऐसें ही कहें लोक समझें. घर घृतका घडा मगावै तब तिसकूं ले आवै, तातें उपचारविषै भी प्रयोजन संभव है ऐसे ही अभेद नयकूं मुख्य करै तहां प्रमेद दृष्टिमें भेद दीखे नाहीं तब तिसमैं ही भेद कहै सो असत्यार्थ है तहां भी उपचारसिद्धि होय है यह मुख्य गौणका भेदकं सम्यग्ध्ष्टी जाने है. मिथ्यादृष्टी अनेकांत वस्तुकूं जानै नाहीं. भर सक्या एक धर्म ऊपरि दृष्टि पडै तब तिसहीकूं सर्वथा वस्तु मानि अन्य धर्मकूं के तौ सर्वथा गौणकरि असत्यार्थ माने, के सर्वथा अन्य धर्मका अभाव ही मानै, तथा मिथ्यात्र दृढ होय है सो यह मिध्यात्वनामा कर्मकी प्रकृतिके उदय य थार्थ श्रद्धा न होय है तातें तिस प्रकृतिका कार्य है सो भी मिथ्यात्व ही कहिये है. भर तिस प्रकृतिका प्रभाव भये तवार्थका यथार्थ श्रद्धान होय है सो यह अनेकान्त वस्तुविषै