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(१६४) भवे सोलगावणी. बहुरि तैसें ही विशेषत्व धर्म जीवत्व आदिमें लगावना जैसे जीव नामा वस्तु सो स्यात् जीवत्व स्यात् अजीवत्व इत्यादि लगावणा. तहां अपेक्षा ऐसें जो अपना जीवत्व धर्म आपमें है तातें जीवत्व है. पर अजीवका अजीवत्व धर्म या नाहीं तौऊ अपने अन्य धर्मको मुख्य करि कहिये ताकी अपेक्षा अजीवत्व है इत्यादि लगावणा. तथा जीव अनन्त हैं ताकी अपेक्षा अपना जीवस्व आपमें परका जीवत्व यामें नाहीं है. तातै ताकी अपेक्षा अजीवत्व है ऐसे भी सधै है. इत्यादि अनादि निधन अनन्त जीव अजीव वस्तु हैं, तिनिविषै अपने अपने द्रव्यत्व पर्यायत्व अनन्त धर्म हैं तिनि सहित सप्त भंगरौं साधना. तथा तिनिके स्थूल प.
र्याय हैं ते भी चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होय हैं- जैसे जीव संसारी सिद्ध, बहुरि संसारीमें त्रस यावर, तिनिमें मनुष्य तियच इत्यादि. बहुरि पुद्गलमें अणु स्कन्त्र तथा घट फ्ट आदि, सो इनिकै भी कचित् वस्तुपणा संभव है. सो भी तेसैं ही सप्तभंगतै साधणा. बहुरि तैसें ही जीव पुद्गलके संयोग” भये आस्रव बंध संवर निर्जरा पुण्य पाप मोक्ष आदि भाव तिनिमें भी बहुत धर्मपणाकी अपेक्षा तथा परस्पर विधिनिषेधत अनेक धर्मरूप कथंचित वस्तुपणा संभवै है. सो सप्तभंगतै साधणा.
जैसे एक पुरुषमैं पिता पुत्र मामा भाणजा काका भतीजापणा आदि धर्म संभवै हैं. सो अपनी अपनी अपेक्षातें