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( ११५ ) जं वत्थु अयंतं तं चिय कज्जं करेइ नियमेण । बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकर दीसए लोए ॥ २२५ ॥
भावार्थ- जो वस्तु अनेकांत है अनेक धर्मस्वरूप है सो ही नियमकरि कार्य करें है. लोकवि बहुतधर्मकरियुक्त पदार्थ है सो ही कार्य करनेवाला देखिये है. भावार्थ - लोकविषै नित्य नित्य एक अनेक भेद इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तु हैं सो कार्यकारी दीखै हैं जैसे माटीके घट आदि कार्य हैं सो सर्वथा मांटी एक रूप तथा नित्य
रूप तथा अनेक अनित्य रूप ही होय तौ घट आदि कार्य व नाहीं, तैसें ही सर्व वस्तु जानना !! २२५ ॥
सर्वथा एकान्त वस्तुकै कार्यकारीपणा नाहीं है ऐसें कहैं हैं, -
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एतं पुणु दव्वं कज्जं ण करेदि लेसमित्तं पि । जं पुणु ण करेदिकज्जं तं वुच्चदि के रिसं दव्वं ॥ २२६॥
भाषार्थ - बहुरि एकांत स्वरूप द्रव्य है सो लेशमात्र भी कार्यकूं नाहीं करे है, बहुरि जो कार्य ही न करै सो कैसा द्रव्य हैं. वह तो - शून्यरूपसा है. भावार्थ- जो अर्थक्रियास्वरूप होय सो ही परमार्थरूप वस्तु कला है अर जो अर्थक्रियारूप नाहीं सो आकाश के फूलकी क्यों शून्यरूप है ॥ २२६ ॥ या सर्वथा नित्य एकांतविषै अर्थक्रियाकारीपणाका अभाव दिखावे हैं,