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(१५०) पावना दुर्लभ होय तैसें । भावार्थ-पृथिवीआदि थावरकायतें नीसरि चिन्तापणि रत्नकी ज्यौं त्रस पर्याय पावना दुर्लभ है
आगें कहै हैं सपणा भी पावै तहां पंचेन्द्रियपणा पा. वना दुर्लभ है,वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अत्थेइ पुव्वकोडीओ। तत्वो णीसरिऊणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥२८॥ ____ भाषार्थ-थावर नीसरि त्रस होय तहाँ भी विकलत्रय वेइन्द्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रियपणा पावै तहां कोटिपूर्व तिष्ठं तहां तैं भी नीसरि करि पंचेंद्रियपणा पावना महा कष्टकर दुर्लभ है. भावार्थ-विकलत्रयतें पंचेंद्रियपणा पावना दुर्लभ है जो विकलत्रयतै फेरि थावर कायमें जाय उपजै तौ फेरि बहुत काल भुगतें. ताते पंचेद्रियपणा पावना अतिशय दुर्लभ है। सो विमणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि। अहमणसहिओहोदि हुतह वि तिरक्खो हवे रुद्दो॥
भाषार्थ-विकलत्रयत नीसरि पंचेन्द्रिय भी होय तौ अ सैनी मनरहित होय है. आप अर परका भेद जाण नाही. बहुरि कदाचित् मनसहित सैनी भी होय तो तिर्यञ्च होय है. रौद्र क्रूर परिणामी विलाव घूघु सर्प सिंह मच्छ आदि होय है. भावार्थ-कदाचित् पंचेन्द्रिय भी होय तौ असैनी होय सैनीपणा दुर्लभ है बहुरि सैनी भी होभ तो कर तिर्यऽच होय ताकै परिणाम निरन्तर पापरूप ही रहै हैं २८७