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कषायनिके वशमें सर्व लोक हैं भर तत्त्वकी भावना करनेवाले विरले हैं ।। २८१ ॥
आगे कहै हैं जो तत्त्वज्ञानी सर्व परिग्रहका त्यागी हो है सो स्त्रीयादिके वश नाहीं होय है, -
सो वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहिं मोहेण जो ण य हृिदि गंथं अब्भंतर बाहिरं सव्वं २८२
न्तर
भाषार्थ - जो पुरुष तत्त्वका स्वरूप जाणि बाहय अभ्यतर सर्व परिग्रहकों नाहीं ग्रहण करें है, सो पुरुष स्त्रीजनके - बश नाहीं होय है. बहुरि सो ही पुरुष इंद्रियनिकरि जीत्या न होय है. बहुरि सो ही पुरुष मोह कर्म जे मिध्यात्व कर्म ति-संकरि जीत्या न होय है. भावार्थ- संसारका बन्धन परिग्रह है सो सर्व परिग्रहकौं छोडै सो ही स्त्री इंद्रिय कषायादिकके वशीभूत नाहीं होय है. सर्वत्यागी होय शरीरका ममत्व न राखै, तब निजस्वरूपमें ही लीन होय है ।। २८२ ॥
आर्गे लोकानुप्रेक्षाका चितवनका माहात्म्य प्रगट करें हैं, एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसम्भाओ । सो खविय कम्मपुंजं तस्सेव सिहामणी होदि ॥ २८३॥
भाषार्थ - जो पुरुष इस प्रकार लोकस्वरूपकौं उपशमकपर एक स्वभावरूप हुंवा संता ध्यावे है, चित्रवन करे है, सो पुरुष क्षेपे हैं ना किये हैं कर्मके पुंज जाने ऐसा तिस लो
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