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(१२१) खिचे एकम्मि ठिदो णियदव्वं संठिदो चेव ॥२३२॥ __ भाषार्थ-जीव द्रव्य है सो अपने चैतन्यस्वरूपविष तिष्ठया अपने ही क्षेत्रविष तिष्ठया अपने ही द्रव्यमें तिष्ठता अपने परिणमनरूप समयविष अपनी पर्यायस्वरूप कार्यकू साथै है. भावार्थ-परमार्थतें विचारिये तब अपने द्रव्य क्षेत्रकालभा. वस्वरूप होता संता जीव पर्यायस्वरूप कार्यरूप परिणमै है पर द्रव्यक्षेत्रकालभाव हैं तो निमित्तमात्र हैं ॥ २३२ ॥
श्रागें अन्यस्वरूप होय कार्य करे तौ तामें दुषण दि. खावे हैं-- ससरूवत्थो जीवो अण्णसरूवम्मि गच्छए जदि हि । अण्णुण्णमेलणादो इक्कसरूवं हवे सव्वं ॥२३३ ॥ ____ भाषार्थ-जो जीव अपने स्वरूपविष तिष्ठता पर स्वरू. पविष जाय तो परस्पर मिलने सर्व द्रव्य एकस्वरूप होय जाय, तहां बडा दोष आवे. सो एकस्वरूप कदाचित् होय नाहीं यह प्रगट है ॥ २३३॥
भागें सर्वथा एकस्वरूप मानने में दूषण दिखावे हैंअहवा बंभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे जदि हि। चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोई ॥२३॥
भाषार्थ-जो सर्वथा एक ही वस्तु मानि ब्रह्मका स्वरूपरूप सर्व मानिये तो ब्राह्मण अर चाण्डालका किछू भी भेद न ठहरे. भावार्थ-एक ब्रह्मस्वरूप सर्व जगत्कू मानिये