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(१११) जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणइ सवपच्चखं ।। तत्थ वि पहाणहेओ पुण्णं पावं च णियमेण ॥२१॥
भाषार्थ-जीव हैं ते भी जीवनिके परस्पर उपकार करें हैं सो यह सर्वके प्रत्यक्ष ही है. सिरदार चाकरके, चाकर सिरदारके, आचार्य शिष्यके, शिष्य आचार्यके, पितामाता पुत्रके, पुत्र पिताशतायो, भित्र नित्र, स्त्री भरतारके इत्यादि प्रत्यक्ष देखिये है. सो तहां परस्पर उपकारकेविर्षे पुण्यपापकर्म नियमकरि प्रधान कारण है ।। २१० ॥ ____ आगे पुद्गलकै बडी शक्ति है ऐसा कहै हैं,का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती। केवलणाणसहाओ विणासिदोजाइ जीवस्स ॥२१॥
भाषार्थ-पुद्गल द्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति देखिये है जो जीवका केवल स्वभाव है सो भी जिस शक्तिकरि विनश्ग जाय है । सामार्थ- अनन्त शक्ति जीवकी है तामें केवलज्ञानशक्ति ऐसी है कि जाकी व्यक्ति (प्रकाश) . होय तब सर्व पदार्थनिकू एकै साल जानै । ऐसी व्यक्तित
पुद्गल नष्ट करै है, न होने दे है, सो यह अपूर्व शक्ति है । ऐसे पुद्गलद्रव्यका निरूपण किया। ___ अब धर्मद्रव्य अर अधर्मद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,धम्ममधम्म दुव्वं गमणट्ठाणाण कारणं कमसो।