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( २० ) देवशास्त्रगुरुका निंदक, अधम, दुबुद्धि, कृतघ्नी, बहु शोक दुःख करनेहीकी प्रकृति जाकी, ऐसा होय सो जीव, मरि. करि नरकविषै उपजै है, अनेक प्रकार दुःखकू सहै है। .
भागे ऊपरि कहे जे पंचप्रकार दुःख तिनकू कहै हैं,असुरोदीरियदुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुन्भुवं च तिव्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं॥३५॥
भाषार्थ-असुरकुमार देवनिकरि उपजाया दुःख, बहुरि शरीरहीकर निपज्या बहुरि मनकरि भया, तथा अनेक प्र. कार क्षेत्रसों उपज्या, बहुरि परस्पर किया हुवा ऐसें पांच प्रकार दुःख हैं । भावार्थ-तीसरे नरकताई तो असुरकुमार देव कुतूहलमात्र जाय हैं, सो नारकीनकों देखि परस्पर ल. डावै हैं. अनेकप्रकार दुःखी करै हैं. बहरि नारकीनका शरीरही पापके उदयतें स्क्यमेव अनेक रोगनिसहित बुरा घिनावना दुःखमयी होय है. बहुरि चित्त जिनके महाक्रूर दुःखरूप ही होय हैं. बहुरि नरकक्षेत्र महाशीत उष्ण दुर्गन्ध अनेक उपद्रव सहित है. बहुरि परस्पर वैरके संस्कारतें छदन भेदन मारन ताडन कुंभीपाक आदि करैं हैं . वहांका दुःख उपमारहित है।
श्रागें याही दुःख का विशेष कहै हैं,छिजइ तिलतिलमित्तंभिंदिजइ तिलतिलं तरं सयलं बजग्गिए कढिजइ णिहिप्पए पूर्यकुंडमि ॥ ३६॥