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( ८० ) भागे एकेन्द्रियादि जीवनिकै पर्याप्तिनिकी संख्या कहै हैं, लद्धिअपुण्णो पुण्णं पजत्ती एयक्खवियलसण्णीणं। चद् पण छकं कमसो पज्जतीए वियाणेह॥१३८ ॥
भाषार्थ-एकेन्द्रियकै च्यारि विकलत्रयकैन, सैनी पंचेन्द्रियके छह ऐसे क्रमतें पर्याप्त जाणू बहुरि लापर्याप्तक है सो अपर्याप्तक है. याकै पर्याप्ति नाही. भावार्थ-एकेन्द्रियादिककै क्रमते पर्याप्ति करे. इहां प्रसनीका नाप लाया नहीं तहां तौ सैनीकै छह असैनीकै पांच जानने. बहुरि नित्यपर्याप्त ग्रहण कार्य ही हैं पूर्ण हासी ही तातें जो संख्या कही है सो ही है. बहुर लब्ध्यपर्याप्त यद्यपि ग्रहण कीया है तथापि पूर्ण होय शक्या नाही, ता ताळू अपूर्ण ही कहया ऐसा सच है. ऐसें पर्याप्तिका वर्णन कीया। .
आगे प्राणनिका वर्णन करें हैं तहां प्रथमही प्राणनिका स्वरूप वा संख्या व है हैंमणक्यणकायइंदियाणस्सासुस्सासआउरुदयाणं। जोस जोए जन्मदिमरदिविओगम्मितेविदह पाणा
छावठि ६ सहसा सच बत्तीसमेयरले ॥३॥ पुढविदगाणिमारसाहारणथूलसुहुम . पदेसु अण्णेमु य एच.पके वार छक्का ॥४॥
पर्याप्तिनामा नामकर्मके उदयसे अपनी अपनी पर्याप्ति बनाता है । जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक