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पर्याप्त जीव संख्या करि विशेषाधिक हैं. किछु अधिककूं विशेषाधिक कहिये सो ए अनुक्रमतें बघते २ हैं । चउरक्खा पंचक्खा वैयक्खा तहय जाण तेयक्खा । एदे पज्जतिजुदा अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥
भाषार्थ-चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय वेइन्द्रिय तैसें ही तेइन्द्रिय ये पर्याप्तिसहित जीव अनुक्रमतें अधिक अधिक जानहु । परिवज्जिय सुहुमाणं सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं । इक्को भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥ १५६ ॥
भाषार्थ - सूक्ष्म जीवनिकं छोडि अवशेष पर्याप्ततियच हैं तिनके एक भाग तौ पर्याप्त हैं. बहुरि बहुभाग असंख्याते अपर्याप्त हैं. भावार्थ- वादर जीवनिविषै पर्याप्त थोरे हैं, अपर्याप्त बहुत हैं।
सुहुमा पज्जत्ताणं एगो भागो हवेइ नियमेण । संखिज्जा खल भागा तेसिं पज्जत्तिदेहाणं ॥ १५७॥
भाषार्थ सूक्ष्मपर्याप्त जीव संख्यात भाग हैं इनिमें अपकि एक भाग हैं. भावार्थ- सूक्ष्म जीवनि में पर्याप्त बहुत हैं पर्याप्त थोरे हैं।
संखिज्जगुणा देवा अंतिमपटला द आणदं जाव । दु तो असंखगुणिदा सोहम्मं जाव पडिपडलं ॥ १५८ ॥ भाषार्थ - देव हैं ते अंतिम पटल जो अनुत्तर विमान