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( ९८) जीवेण विणा णाणं किं केणवि दीसए कत्थ॥१८१॥
भाषार्थ-जा चार्वाकमती ज्ञानकू पृथ्वी श्रादि जे पंच भूत तिनिका विकार मानै है सो चार्वाक, भूत कहिये पिशाच ताकरि गृह्या है गहिला है. जातै विना ज्ञानके जीव कहां कोईकरि कहूं देखिये है ? कहूं भी नाहीं देखिये है।
आगे याकू दृषण बतावे हैं ॥ १८१ ॥ सच्चेयणपच्चरखं जो जीवं णेय मण्णदे मूढो । सो जीवं णमुणतो जीवाभावं कहं कुणदि॥१८२॥ ___ भाषार्थ-यह जीव सत्रूप अर चैतन्यरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाणकरि प्रसिद्ध है. ताहि चार्वाक नाहीं मान है. सो मुख है. 'जो जीवकू नाही जाणे है नाहीं माने है तौ जीवका प्रभाव कैसे करें है. भावार्थ-जो जीवकू जानै ही नाही सो अभाव भी न कहि सकै. अभावका कहनेवाला भी तो जीव ही है. जातें सद्भावविना अभाव कह्या न जाय १८२
आगें याहीकू युक्तिकरि जीवका सद्भाव दिखावै हैंजदि ण य हवेदिजीओ तो को वेदेदि सुक्खदुक्खाणि इंदियविसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण॥१८॥ ___ भाषार्थ-जो जीव नाहीं होय तो अपने सुखदुःखकू कौन जानै तथा इन्द्रियनिके स्पर्श आदि विषय हैं तिनि सनिकं विशेषकार कौन जानै. भावार्थ-चार्वाक प्रत्यक्ष प्र