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१०२) तब यह ही जीव पापरूप होय है. बहुरि उपशम भाव जो मन्द कषाय ताकरि संयुक्त होय तब यह ही जीव पुण्यरूप होय है, भावार्थ-क्रोध मान माया लोभका अतितीव्रपणात तौ पाप परिणाम होय है. अर इनिका मंदपणात पुण्यपरिणाम होय है तिनि परिणामनिसहित पुग्यजीव पापजीव कहिये है एक ही जीव दोऊ परिणामयुक्त हुवा के पुण्यजीव पाफ्जीद कहिये है. सो सिद्धान्तकी अपेक्षा ऐसे ही हैं. जाते सम्यक्त्व सहित जीव होय ताकै तो तीव्र पायनिकी जड़ कटनेते पुण्य जीव कहिये. बहुरि मिथ्यादृष्टि जीवकै भेदज्ञानविना कषायनिकी जड़ कटै नाहीं तातें बाह्यते कदाचित् उपशम परिणाम भी दीखै तौ आफू पापजीव ही कहिये ऐसा जानना ।। रयणत्यसंजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो रयणत्तयदिठवणावाए ॥ १९१॥
भाषार्थ-जातें यह जीव रत्नत्रयरूप सुंदर नावकरि सं० सारनै तिरै है पार होय है. तात यह ही जीव रत्नत्रयकरि संयुक्त भया संता उत्तन तीर्थ है, भावार्थ-तीर्थ नाम जो तिरै तथा जाकरि तिरिये सो है. सो यह जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तेई भये रत्नत्रय, सोई भई नाव, ताकरि तरै है तथा अन्यकुँ तिरनको निमित्त होय है तातें यह जीव ही तीर्थ है ।। ___ आगै अन्यप्रकार जीवका भेद कहै हैं-- जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।