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( १०३ ) परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥
भाषार्थ - जीव बहिरात्मा अन्तरात्मा परमात्मा ऐसें तीन प्रकार हैं बहुरि परमात्मा भी अरहन्त तथा सिद्ध ऐसें दोय प्रकार हैं ।। १९२ ॥
अब इनका स्वरूप हैं हैं तहां बहिरात्मा कैसा है सो कहै हैं
मिच्छत्त परिणदापा तिव्वकसाएण सुठु आविट्ठो । जीवं देहं एक मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३॥
भाषार्थ - जो जीव मिथ्यात्व कर्मका उदयरूप परिणाम्या होय बहुरि तीव्र कषाय अनन्तानुबन्धीकरि सुष्ठु कहिये अतिशयकरि युक्त होय इस निमित जीवकूं अर देहकूं एक मानता होय सो जीव बहिरात्मा कहिये. भावार्थ - बाह्य पर द्रव्यको श्रात्मा मानै सो बहिरात्मा है. सो यह मानना मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषायके उदयकरि होय है तातें भेदज्ञानकरि रहित हूवा संता देहकं आदिदेकरि समस्त परद्रव्यविषै अहंकार ममकारकरि युक्त हूवा सन्ता बहिरात्मा कहा है ॥ १९३ ||
या अंतरात्माका स्वरूप तीन गाथानिकरि कहै हैंजे जिणवणे कुसलो भेद जाणंति जीवदेहाणं । णिज्जियदुट्टट्ठमया अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥