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(१०५) स्मा हैं. कैसे हैं ते, जिनवरवचनविषे अनुरक्त हैं लीन हैं. प्राज्ञा सिवायाप्रवन न करें. बहुरि उपशमभाव कहिये मन्द कषाय विसरूप है. स्वभाव निनिका, बहुरि महापराक्रमी हैं परीषहादिकके सहनेमें दृढ हैं उपसर्ग आये प्रतिज्ञातै टलैं नाहीं ऐसे हैं ॥ १९६ ।।
अब जघन्य अंतरात्माकू कहै हैंअविरयसम्मट्ठिी होति जहण्णा जिणंदपयभचा। अप्पाणं जिंदंता गुणगहणे सुठुअणुरत्ता ॥१९॥ ___ भाषार्थ-जे जीव अविरत सम्यग्दृष्टो हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन तौ जिनके पाइये है अर चारित्रमोहके उदयकरि व्रतधारि सकें नाहीं ऐसे जघन्य अंतरात्मा हैं. ते कैसे हैं ? जिनेन्द्र के चरननिके भक्त हैं, जिनेन्द्र, तिनकी वाणी, तथा तिनिके अनुसार निर्ग्रन्थ गुरु तिनिकी भक्तिविष तत्पर हैं. बहुरि अपने आत्माकू निरन्तर निंदते रहै हैं जाते चारित्रमोहके उदयतें व्रत धारे जांय नाही, अर तिनकी भावना निरन्तर रहै तातें अपने विभाव परिणामनिकी निन्दा क. रते ही रहै हैं. बहुरि गुणनिके ग्रहणविषै भले प्रकार अनुरागी हैं जाते जिनिमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखें तिनित अत्यन्त अनुरागरूप प्रवन हैं गुणनितें अपना अर परका हित जान्या है, तातें गुणनित अनुराग ही होय है. ऐसे तीन प्रकार अन्तरात्मा कह्या सोगुणस्थाननिकी अपेक्षातें जानना । भावार्थ-चौथा गुणस्थानवर्ती तौ जघन्य अंतरात्मा, पांचवां