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ता जैसी देह पावै तैसाही प्रमाण रहे है, अर समुद्घात करै तब देह भी प्रदेश नीस रे हैं ॥ १७६ ॥
आगें कोई अन्यमती जीवकुं सर्वथा सर्वगत ही कहै हैं विनिका निषेध करें हैं, -
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सव्वगओ जदि जीवो सव्वत्थ विदुक्खसुक्खसंपत्ती जाइज ण सा दिट्ठी णियतणुमाणो तदो जीवो ॥
भाषार्थ - जो जीव सर्वगत ही होय तौ सर्व क्षेत्र संबंधी सुखदुःखकी प्राप्ति या भई सो तौ नाहीं देखिये है. अपने शरीरमें ही सुखदुःखकी प्राप्ति देखिये है. तातैं अपने शरीप्रमाण ही जीव है ॥ १७७ ॥ जीवाणसहावो जह अग्गी उहओ सहावेण । अत्यंतरभूद्रेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी ॥१७८॥
भाषार्थ - जैसें अनि स्वभावकरि ही उष्ण है तैसें जीव है सो ज्ञानस्वभाव है तातैं अर्थान्तरभूत कहिये आपतैं प्रदेशरूप जुदा ज्ञानकरि ज्ञानी नाहीं है. भावार्थ - नैयायिक श्रादि हैं ते जीवकै र ज्ञानकै प्रदेशभेद मानिकरि कहै हैं जो श्रामातैं ज्ञान भिन्न है सो समवायतें तथा संसर्गतें एक भया है ता ज्ञानी कहिये है. जैसें धनतैं धनी कहिये तैसें सो यह मानना असत्य है. ग्रात्माकै अर ज्ञानकै अनि अर उजैसे भेदभाव है वैसे तादात्म्यभाव है ।। १७८ ॥ आगे भिन्नमाननेमें दूषण दिखावै हैं,