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( ९९ ) माण मान है. सो अपने सुखदुःखईं तथा इंद्रियनिके विषयनिकू जानै सो प्रत्यक्ष, सो जीव विना प्रत्यक्षप्रमाण कौनकै होय ? तातै जीवका सद्भाव अवश्य सिद्ध होय है ।।१८३॥ - भागें आत्माका सद्भाव जैसे वणे तैसें कहै हैंसंकप्पमओ जीवो सुहदुक्खमयं हवेइ संकप्पो। तं चिय वेयदि जीवो देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥
भाषार्थ-जीव है सो संकल्पमयी है. बहुरि संकल्प है सो दुःखसुखमय है. तिस सुखदुःखमयी संकल्पकू जाणे सो जीव है जो देहविष सर्वत्र मिलि रहा है तोऊ जाननेवाला जीव है ॥ १८४ ॥
भागे जीव देहसू मिल्या हूवा सर्व कार्यनिकू करै है यह
देहमिलिदो वि जीवो सव्वकम्माणि कुव्वदे जमा। तमा पयट्टमाणो एयत्वं बुझदे दोहं॥१८५॥ ___ भाषार्थ-जाते जीव है सो देह मिल्या हूवा' ही सर्व कर्म नोकर्मरूप सर्व कार्यनिकू करें ई तातै तिनि कार्यनिवि प्रवर्तता संता जो लोक ताकू देहकै अर जीवकै एकपना भास है. भावार्थ-लोककू देह अरजीव न्यारे तो दीखें नाहीं दोऊ मिलेहुये दीखे हैं संयोगते ही कार्यनिकी प्रवृत्ति दीखै है ताते दोऊनिको एक ही मान है ॥ १८५॥