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(४५) ते दुर्गन्ध होय जाय, भले मिष्टान्नादि रससहित खाये ते मलादिकरूप परिणमैं. अन्य भी वस्तु या देहके स्पर्शतै अस्पर्य होय जाय हैं।
बहुरि या देहळू अशुचि दिखावै हैंमणुआणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तसि विरमणकजे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता ॥८५ ॥ भाषार्थ-हे भव्य ! यह मनुष्यनिका देह कर्मने अशुचि बणाया है, सो यहां ऐसी उत्प्रेक्षा संभावना जाणि, जो इनि मनुष्यनिकू वैराग्य जनावनेके अर्थिही ऐसा रच्या है परंतु ये मनुष्य ऐसे भी देहमें अनुरागी होय हैं. सो यह अज्ञान है।
बहुरि याही अर्थकू दृड करै हैं,एवं विहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं । सेवंति आयरेण य अलद्धपुव्वत्ति मण्णंता ॥८६॥
भाषार्थ-ऐसा पूर्वोक्तप्रकार अशुचि देहकू प्रत्यक्ष देखता भी ये मनुष्य तहां अनुराग करै हैं, जैसे पूर्वे ऐसे कभी न पाया ऐसा मानते संते आदरै हैं, याकू सेवै हैं, सो यह बडा अज्ञान हैं। ___ आगै या देहस्रं विरक्त हो हैं ताकै अशुचि भावना सफल है ऐसा कहै हैं-- जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्पसरूवि सुरतो असुइत्ते भावणा तस्स ॥ ८७ ॥