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( ७१ ) भाषार्थ-जहाँ जीव आदिक पदार्थ देखिये हैं सो लोक कहिये । ताके शिखर ऊपरि अनन्ते सिद्ध विराजे हैं. भावार्थ-'लोक' दर्शने नामा व्याकरणमें धातु है. ताकै आश्रयाविषै प्रकार प्रत्ययते लोक शब्द निपजै है. तातें जामें जीवादिक द्रव्य देखिये. ताकू लोक कहिये. बहुरि ताके उपरि अन्तविष कर्म रहित शुद्धजीव अनन्त गुणनिकरि सहित अविनाशी अनंत विराजे हैं।
आगें या लोकविष जीव आदि छह द्रव्य हैं तिनका वर्णन करै हैं, तहां प्रथम ही जीव द्रव्यकू कहै हैं। .. एइंदियेहिं भरिदो पंचपयारेहिं सव्वदो लोओ। तसनाडीए वि तसा ण वाहिरा होंति सव्वत्थ १२२
भाषार्थ-यह लोक पृथ्वी अप् तेज वायु बनस्पति ऐसे पंचप्रकार कायके धारक जे एकेंद्रिय जीव तिनकरि सर्वत्र भरथा है. बहुरि त्रस जीव त्रस नाडीविष ही हैं. वाहिर नाही हैं । भावार्थ-जीव द्रव्य उपयोग लक्षणवाला समान परिणामकी अपेक्षा सामान्य करि एक है. तथापि वस्तु मिन्नप्रदेशकरि अपने २ स्वरूपकुं लीये न्यारे न्यारे अनन्ते हैं. तिनमें जे एकेंद्रिय हैं. ते तो सर्व लोकमें है बहुरि बेन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसे त्रस हैं ते त्रस नाडी विषही हैं।
भागें वादर सूक्ष्मादि भेद कहै हैं,पुण्णा वि अपुण्णा वि यथूला जीवा हवंति साहारा