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भाषार्थ - जिन जीवनिका पृथ्वी जल अग्नि पवन इन करि रुकना न होय ते जीव सूक्ष्म जानहु, बहुरि ने इन करि रुकें ते वादर जानहु ।
आगे प्रत्येककुं वा त्रसकूं कहै हैं,
पंचेया विय दुर्विहा णिगोदस हिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति तसा विय वितिचउरक्खा तहेव पंचक्खा
भाषार्थ - प्रत्येक वनस्पती भी दोय प्रकार है. ते निगोदसहित हैं वैसे ही निगोदरहित हैं. बहुरि त्रस भी दोय प्रकार हैं. बेन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ऐसें तो विकलत्रय बहुरि तैसें ही पंचेन्द्रिय हैं. भावार्थ - जिस वनस्पतीके श्राश्रय निगोद पाइये सो तौ साधारण है, याकूं सप्रतिष्ठित भी कहिये. बहुरि जिसकै श्राश्रम निगोद नाहीं ताकूं प्रत्येक ही कहिये. याहीको प्रतिष्ठित भी कहिये है. बहुरि बेन्द्रिय श्रादिककूं त्रस कहिये है.
* मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीज बोजरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥ १ ॥
जो वनस्पति मूल अग्र पर्व कंद स्कंध वीजसे पैदा होती हैं तथा जो सम्मूर्च्छन हैं वे वनस्पतियां सपतिष्ठित हैं तथा अप्रतिष्ठित भी हैं। भावार्थ - बहुत सी वनस्पतियां मूलसे पैदा होती हैं जैसे अदरक, हल्दी आदि । कई वनस्पति अग्र भाग से उत्पन्न होती हैं जैसे गुलाव