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( ५७ ). जो चिंतेइ सरीरं ममत्वजणयं विणस्सरं असुई। दसणणाणचरित्रं सुहजणयं णिम्मलं णिचं ॥१११ ॥
भाषार्थ-जो मुनि या शरीरकू पमत्व मोहका उपजावनहारा तथा विनाशीक तथा अपवित्र मानें, ताकै निजरा बहुत होय. भावार्थ-शरीरकू मोहका कारन अथिर अशुचि मानें तब याका सोच न रहै. अपना स्वरूपमैं लागै, तब निजरा होय ही होय। अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंताणं करेदि बहुमाणं । '. मणइंदियाण विजई स सरूवपरायणो होदि ११२
भाषार्थ-जो साधु अपने स्वरूपविष तत्पर होय करि अपने किये दुष्कृतकी निंदा करै. बहुरि गुणवान पुरुषनिका प्रत्यक्ष परोक्ष बडा आदर करै. बहुरि अपना मन इंद्रियनिका जीतनहारा वश करनहारा होय ताकै निजरा बहुत होय. भावार्थ-मिथ्यात्वादि दोषनिका निरादर करै तब वे काहेकू हैं. झडिही पडें ॥ तस्स य सहलो जम्मो तस्स वि पावस्स णिजरा होदि तस्स वि पुण्णं वड्ढइ तस्स य सोक्खं परो होदि ११३ ____ भाषार्थ-जो साधु ऐसे पूर्वोक्त प्रकार निभराके कारणनिविषै प्रवत्र्ते है, ताहीका जन्म सफल है. बहुरि तिसहीकै पाप कर्मकी निर्जरा होय है, पुण्यकर्मका अनुभाग बबै है. भावार्थ-जो निर्जराका कारणनिविष प्रवतै, ताकै पाप