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दोहा ।
निज आतमतें भिन्न पर, जानै जे नर दक्ष । निजमें मैं मैं अपर, ते शिव लखें प्रत्यक्ष ॥ ५ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ५ ॥
अथ अशुचित्वानुप्रेक्षा लिख्यते । सयलकुहियाण पिंड किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं मलमुचाणं गेहं देहं जाणेह असुइमयं ॥ ८३ ॥
भाषार्थ - हे भव्य तू या देहकूं अपवित्रमय जाणि. -कैसा है देह ? समस्त जे कुत्सित कहिये निंदनीक वस्तु ति नका पिंड कहिये समूह है. बहुरि कैसा है ? क्रिमि कहिये उदरके जीव लट तथा अनेक प्रकार निगोदादिक जीव तिनकरि भरथा है. बहुरि अत्यन्त दुर्गन्धमय है. बहुरि मल तथा मूत्रका घर है. भावार्थ- सर्व अपवित्र वस्तुका समूह देइकं जाया हु ।
आगे कहै हैं यह देह अन्य सुगन्ध वस्तुकं भी संयोगर्तें दुर्गंध करे है-सुठुपवित्तं दव्वं सरससुगंधं मणोहरं जं पि । देहणिहित्तं जायदि घिणावणं सुठुदुग्गंधं ॥ ८४ ॥
भाषार्थ - या देहकेविषै क्षेपे लगाये भले पवित्र सुरस सुगंध मनके हरणहारे द्रव्य, ते भी घिणावणा अत्यन्त दुगन्ध होय हैं । भावार्थ-या देहकै चंदन कपूरादिकूं लगाये
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