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कर्मकी निर्जरा हे भव्य तू जाणि. भावार्थ-कर्म उदय होय क्षर जाय ताकू निर्जरा कहिये, सो यह निर्जरा दो प्रकार है सो ही कहै हैंसा पुण दुविहा णेया सकालपत्ता तवेण कयमाणा। चादुरादीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे विदिया ॥१०॥
भाषार्थ-तो पूर्वोक्त निर्जरा दोय प्रकार है. एक तौ स्वकालप्राप्त, एक तपकरि, करी हुई होय. नामें पहिली स्वकालप्राप्त निर्जरा तौ चारही गतिके जीवनिकै होय है. बहुरि व्रतकरि युक्त हैं तिनकै दूसरी तपकरि करी हुई होय है. भावार्थ-निर्जरा दोय प्रकार है. तहां जो कर्मस्थिति पूरी करि उदय होय रस देकरि खिरै सो तो सविधाइ कहिये. यह निर्जरा तो सर्व ही जीवनिकै होय है. बहुरि तपरि कर्म विना स्थिति पूरी भये ही पकै, क्षार जाय, ताङ, अविपाक ऐसा भी नाम कहिये है, सो यह व्रतधारीनिकै होय है ।
आगे निर्जरा बधती काहे होय सो कहै हैंउवसमभावतवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं । तह तह णिजर वड्ढी विसेसदो धम्मसुक्कादो १०५ __ भाषार्थ-मुनिनिके जैसें २ उपशमभाव तथा तपकी बधः वारी होय तैसें २ निर्जराकी बधवारी होय है. बहुरि धर्मध्यान शुक्लध्यानके विशेष बधवारी होय है।