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(४९ ) तस्सासवाणुपिक्खा सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥ ___ भाषार्थ-ऐसे प्रगटपणे जनता सन्ता भी जो त्यजनेयोग्य परिणामनिकू नाहीं छोडै है त क सारा आस्रवका चितवन निरर्थक है. कार्यकारी नाही. भावार्थ-आस्रवानुप्रेक्षाका चिं. तवन करि प्रथम तौ तीव्रकषाय छोडणा, पीछे शुद्ध प्रात्मस्वरूपका ध्यान करणा, सर्व कषाय छोटना, तब यह चिंतवन सफल है. केवल वार्ता करणमात्र ही तौ सफल है नाही। एदे मोहजभावा जो परिवजह उवसमे लीणो। हेयमिदिमण्णमाणो आसवअणुपेहणं तस्स ॥९॥
भाषार्थ-जो पुरुष एते पुणेक्त मोहके उदयतें भये मिथ्यात्वादिक परिणाम तिनिकू छोडे है, कैसा हया संता उपशम परिणाम जो वीतराग भाव सावि लीन हवा संता तथा इनि मिथ्यात्वादिक भावनिकू हेय कहिये त्यागनेयोग्य हैं, ऐसें जानता संता. ताके आत्रकानुप्रेक्षा हो है।
दोहा. मानव पंचप्रकारक, न त विकार । ते पाई निजरूपा, यह भावनासार ॥७॥
इति आसवानुप्रक्षा समाता ।। ७ ॥