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( ५१ ) आगे इनको स्पष्ट करि कहैं हैं, गुत्ती जोगणिरोहो समिदीयपमायवज्जणं चेव । धम्मो दयापहाणो सुतच्च चिंता अणुप्पेहा ॥ ९७ ॥
भाषार्थ - योगनिका निरोध सो तो गुप्ति है, प्रमादका वर्जना यत्नतें प्रवर्त्तना सो समिति है. जामें दयाप्रधान होय सो धर्म है, भले तत्व कहिये जीवादिक तत्व तथा निजस्वरूपका चितवन सो अनुप्रेक्षा है ।
सो वि परीसह विजओ छुहाइपीडाण अइउद्दाणं । सवणाणं च मुणीणं उवसमभावेण जं सहणं ॥ ९८ ॥
भाषार्थ - जो अति रौद्र भयानक क्षुधा आदि पीडा तिनका उपशमभाव कहिये वीतरागभाव करि सहना सो ज्ञानी जे महामुनि तिनिकै परीसहनिका जीतना कहिये है । अप्पसरूवं वत्थं चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं । सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ ९९ ॥
भाषार्थ - जो आत्मस्वरूप वस्तु है ताका रागादि दोषनिकरि रहित धर्म्य शुक्ल ध्यानविषै लीन होना ताहि भो भव्य ! तू उत्तम चारित्र जाणि ।
आगे कहै हैं जो ऐसे संवरको आचरे नाहीं है सो संसार में भ्रम है, -
दे संवर हेदुं वियारमाणो वि जो ण आयरइ ।