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( २८ ) अह कहवि हवदि देवो तस्स य जायेदि माणसं दुक्खं दळूण महद्धीणं देवाणं रिद्धिसंपत्ती ॥ ५८॥ ___ भाषार्थ-अथवा बडा कष्ट करि देवपर्याय भी पावै तो ताकै बडे ऋद्धिके धारक देवनिकी ऋद्धि सम्पदा देखिकरि मानसीक दुःख उपजै है। इट्ठविओगं दुक्खं होदि महद्धीण विसयतण्हादो । विसयवसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुतो तित्ती ॥ ५९॥ ' भाषार्थ-महर्दिक देवनकै भी इष्ट ऋद्धि देवांगनादिका वियोग होय है, तासंबंधी दुःख होय हैं. जिनकै विषयनिके आधीन सुख है तिनकै काहेरौं तृप्ति होय ? तृष्णा वधती ही रहै। आगै शारीरिक दुःखौं मानसीक दुःख बडा है ऐसें कहै हैं। सारीरियदुक्खादो माणसदुक्खं हवेइ अइपउरं। . माणसदुक्खजुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥ __ भाषार्थ-कोई जानैगा शरीरसंबंधी दुःख बडा है मानसिक दुःख तुच्छ है, ताकू कहै हैं, शारीरिक दुःखते मानसिक दुःख अति प्रचुर है बडा है. देखो ! मानसीक दुःख सहित पुरुषकै अन्य विषय बहुत भी होय तो दुःख उपभावन हारे दीसैं. भावार्थ-मनकी चिंता होय तब सर्व ही सामग्री दुःखरूप भासै ।