________________
( २९) देवाणं पि य सुक्खं मणहरविसएहिं कीरदे जदिही विषयवसं जे सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥६१
भाषार्थ-प्रगटपणै जो देवनिकै मनोहर विषयनिकरि सुख विचारिये तो सुख नाहीं है. जो विषयनिके प्राधीन सुख है सो दुःखहीका कारण है. भावार्थ-अन्य निमित्तते सुख मानिये सो भ्रम है, जो वस्तु सुखका कारण मानिये है सोही वस्तु कालान्तरमें दुःखकू कारण होय है। . आगें ऐसे विचार किये कहूं भी सुख नहीं ऐसा कहै हैं. एवं सुट्ठ-असारे संसारे दुक्खसायरे घोरे । किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्चयदो॥
भाषार्थ-ऐसे सर्व प्रकार असार जो यह दुःखका सागर भयानक संसार, ताविषै निश्चययकी विचार कीजिये किछु कहूं सुख है ? अपि तु नाहीं है. भार्थ-चारगतिरूपसंसार है तहां चारि ही गति दुःखरूप हैं, तब सुख कहां?
भागें कहै हैं जो यहु जीव पर्याय बुद्धि है जिस योनिमैं उपजै तहां ही सुख मानले है। दुक्कियकम्मवसादो राया वि य असुइकीडओ होदि तत्थेव य कुणई रइं पेखह मोहस्स माहप्पं ॥६॥
भावार्थ-जो प्राणी हो तुम देखो मोहका माहत्म्य, कि पापके वश” राना भी मरकरि विष्ठ का काडा जाय उपजे है सौ तहां ही रति मान है क्रीडा करै है।