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( १९ ) एक्कं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स। सो संसारो भण्णदि मिच्छकसायेहिं जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ . भाषार्थ--मिथ्यात्व कहिये सर्वथा एकान्तरूप वस्तुको श्रद्धना, बहुरि कषाय कहिये क्रोध मान माया लोभ इनकरि युक्त यह जीव, ताकैं जो अनेक देह निविषै संसरण कहिये भ्रमण होय, सो संसार कहिये । सो कैसे ? सो ही कहिये है। एक शरीरकू छोडै अन्य ग्रहण करै फेरि नवा ग्रहणकरि फेरि ताकू छोडि अन्य ग्रहण कर ऐसे बहुतबार ग्रहण किया कर सो ही संसार है । भावार्थ-शरीरनै अन्य शरीरकी प्राप्ति होवो करै सो संसार है।
आगें ऐसे संसारविर्षे संक्षेप करि चार गति हैं तथा अनेक प्रकार दुःख हैं । तहां प्रयम ही नरकगतिविष दुःख, है, ता• छह गाथानिकरि कहै हैंपावोदयेण णरए जायदि जीवो सहेदि बहुदुक्खं । पंचपयारं विविहं अणोवमं अण्णदुक्खेहिं ॥ ३४ ॥
भाषार्थ-यह जीव पापके उदयकरि नरकबिष उपजै है तहां अनेकभांतिके पंचप्रकारकरि उपमाते रहित ऐसे बहुत दुःख सहै है । भावार्थ-जो जीवनिकी हिंसा करै है, झूठ बोलै है, परधन हरै है, परनारि तक है, बहुत आरंभ करै है, परिग्रहविर्षे आशक्त होय है, बहुत क्रोधी, प्रचुर भानी, अति कपटी, अति कठोर भाषी, पापी, चुगल, कृपण,