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(१७) तमा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि २८
भाषार्य-जाते आयुकर्मके क्षयतै मरण होय है बहुरि आयु कर्म कोई• कोई देनेको समर्थ नाही, तातै देवनका इन्द्र भी मरण” नाहिं राख सकै है. भावार्थ-मरणतै आयु पूर्ण हुवा होय; बहुरि घायु कोई काहूको देने समर्थ नाहीं तब रक्षा करनेवाला कौन ? यह विचारो! ___ आगें याही अर्थकू दृढ करै हैं,अप्पाणं पि चवंतं जइ सक्कदि रक्खि, सुरिंदो वि। तो किं छंडदि सग्गं सव्वुत्तमभोयसंजुत्तं ॥ २९॥
भाषार्थ- जा देवनका इन्द्रहू पापको चयता [ मरते हुये ] राखनेको समर्थ होता तो सर्वोत्तम भोगनिकरि संयुक्त जो स्वर्गका वास, ता• काहेको छोड़ता ? भावार्थ-सर्व भो. गनिका निवास अपना वश चलते कौन छोडै ? ___ भागें परमार्थ शरणा दिखावै हैंदसणणाणचरितं सरणं सेवेहि परमसद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥३०॥ ___भाषार्थ-हे भव्य ! तू पम श्रद्धाकरि दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप शरणा सेवन करि । या संपारविषै भ्रमते जीवनि अन्य कछू भी शरण नाहीं है । भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र अपना स्वरूप है सो ये ही परमार्थरूप [ वास्तवमें ] शरणा है । अन्य सर्व अशरणा हैं। निश्चय