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तो कोई जीवित दीसे नाही. वृथा ही मोहकरि विकer उपजावै है । मागें याही अर्थको बहुरि दृढ करें हैं, - अइबलिओ वि रउदो मरणविहीणो ण दीसए को वि। रक्खिज्जतो विसया रक्खपयारेहिं विविहेहिं ॥ २६॥
'भषार्थ - इस संसारविषै अति बलवान तथा अतिरौद्र भयानक बहुरि अनेक रक्षाके प्रकार तिनकरि निरन्तर रक्षा कीया हूवा भी मरणरहित कोई भी नाहीं दीख है, 'भावार्थ- अनेक रक्षा के प्रकार गढ कोट सुभट शस्त्र आदि उपाय कीजिये परन्तु मरणतें कोऊ वचै नाहीं । सर्व उपाय विफल जाय हैं ।
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आगें शरण कल्पै ताकूं अज्ञान बताये हैंएवं पेच्छतो वि हु गहभूयपिसाय जोइणी जक्खं । सरणं मण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ॥ २७ ॥
भाषार्थ - ऐसें पूर्वोक्तप्रकार शरण प्रत्यक्ष देखताभी मूढ जन तीव्रमिध्यात्वभावतें सूर्यादि ग्रह भूत व्यंतर पिशाच योगिनी चंडिकादिक यक्ष मणिभद्रादिक इनहि शरणा मानें है । भावार्थ - बहु प्राणी प्रत्यक्ष जाग है जो मरण को ऊ भी राखणहारा नाहीं, तोऊ ग्रहादिकका शरण कल्पै है, सो यह तीव्रमिथ्यात्वका उदयका माहात्म्य है ।
आगे मरण है सो प्रायु क्षयतें होय है यह कहै हैंआयुक्खयेण मरणं आउं दाऊण सक्कदे को वि ।