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( १५ ) सर्वही कालकरि प्रसे, तिस संसारविषे कहा शरणा होय ! किछू भी न होय. भावार्थ-भरणा ताकू कहिये जहां अपनी रक्षा होय, सो संसारमें जिनका शरणा विचारिये ते ही काल-पाय नष्ट होय हैं. तहां काहेका शरणा?
- आगे याका दृष्टान्त कहै हैं,सिंहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि। तह मिच्चुणा य गहियं जीवं पिण रक्खदे को वि॥
भाषार्थ-जैसे वनविष सिंहके पगतलें पडया जो हिरण, ताहि कोऊ भी राखनेवाला नाही, तैसें या संसारमें कालकरि ग्रहया जो प्राणी, ताहि कोउ भी राखि सकै नाही. भावार्थ-उद्यानमें सिंह मृगकू पगतलें दे, तहां कौन राखै ? तैसें ही यह कालका दृष्टांत जानना। - आगें याही अर्थकू दृढ़ करै हैं,-' जइ देवो वि य रक्खइ मंतो तंतो य खेत्तपालोय। मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति २५ ___ भाषार्थ-जो मरण• प्राप्त होते मनुष्यकू कोई देव मंत्र तंत्र क्षेत्रपाल उपलक्षणते लोक जिनकू रक्षक मान, सो सर्वही राखनेवाले होंय तौ मनुष्य अक्षय होय. कोई भी मरे नाही. भावार्थ-लोक जीवनेके निमित्त देवपूजा मंत्रतंत्र ओषधी आदि अनेक उपाय करै है परंतु निश्चय विचारिये