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( १४ ) चना ज्वरादिक रोग नेत्रविकार अन्धकार इत्यादि अनेक कारण हैं, परन्तु यह मोह सवते बलवान है, जो प्रत्यक्ष विनाशीक वस्तुको देख है, तो हू नित्य ही मनावै है. तथा मिथ्यात्व काम क्रोध शोक इत्यादिक हैं ते सब मोहहीके भेद हैं. ए सर्व ही वस्तु स्वरूपविषे अन्यथा बुद्धि करावे हैं।
प्रागें या कथनको संकोचे हैंचइऊण महामोहं विसऐ सुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिव्विसयं कुणंह मणं जेण सुहं उत्तमलहइ ॥२२॥
भाषार्थ-भो भव्य जीव हो ! तुम समस्त विषयनिकू विनाशीक सुणकरि, महा मोह को छोडकरि, अपने मनकू विषयनित रहित करिह, जाते उत्तम सुखको पावो. भावार्थपूर्वोक्त प्रकार संसार देह भोग लक्ष्मी इत्यादिक अथिर दि. खाये तिनकू सुणिकरि अपना मनकू विषयनित छुडाय अयिर भावैगा सो भव्य जीव सिद्धपदके सुखकों पावैगा.।
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अथ अशरणानुप्रेक्षा लिख्यते. तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसये विलओ। हरिहरबंभादीया कालेण कवलिया जत्थ ॥ २३ ॥
भाषार्थ-जिस संसारविष देवनिके इन्द्रनिका विनाश देखिये है बहुर जहां हरि कहिये नारायण, हर कहिये रुद्र, ब्रह्मा कहिये विधाता आदि शब्द कर बडे २ पदवीधारक