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श्राद्धविधि प्रकरण. हुए नाना प्रकार के वृक्षों के फलों का भक्षण करने से. बह थोड़े ही समय में नवयौवना और गौरांगी बन गई। सचमुख मणिमंत्र औरः औषधियां की महिमा कुछ अचिंत्य प्रभावशाली है । एक दिन कितने एक व्यापारी उस वन मार्ग से जा रहे थे। देवयोग से उन्हों ने सोमश्री को देखकर आश्चर्य पूर्वक पूछा कि तू देवां. गना, नागकन्या, जलदेवी, या स्थलदेवी, कौन है ? क्योंकि मनुष्यों में तो तेरे समान मनोहर सौंदर्यवती कन्या कहीं भी नहीं हो सकती। उसने हुए दबे स्वर से उत्तर दिया कि मैं देवांगना या नागकन्या नहीं परन्तु एक मनुष्य प्राणी हूं। और मुझ पर देव का कोप हुआ है। क्योंकि मेरे रूप ने ही मुझे दुःखसागर में डाला है। सचमुच किसी वक्त गुण भी दोष रूप बन जाता है । उसके ये करुणाजनक वचन सुनकर उन व्यापारियों ने कहा कि, जब तू ऐसी रूपवती होने पर भी दुःखो है तो हमारे साथ रहकर सुख से समय व्यतीत कर । उसने उनके साथ रहना खुशी से मंजूर कर लिया। अब वे व्यापारी उसे अपने साथ ले अपने निर्धारित शहर की तरफ चल पड़े।
रास्ते में चलते समय सोमश्री के रूप लावण्यादि गुणों से रंजित हो वे उसे अपनी स्त्री बनाने की अभिलाषा करने लगे, क्योंकि भक्षण करने लायक पदार्थ को देखकर कौन भूखा मनुष्य खाने की इच्छा न करे ? प्रत्येक मनुष्य उस पर अपने मन में अभिलाषा रखते हुए सुवर्णकुल नामा शहर में आ पहुंचे। वह बंदर व्यापार का मथक होने के कारण वे माल लेने और बेचने के कार्य में वहां पर लग गये, क्योंकि वे इसी आशय से वहां पर अति प्रयास करके आये थे। जो माल अच्छा और सस्ता मिलने लगा वे उसे एकदम खरीदने लग गये। व्यापारियों की यही रीति है जो वस्तु मिले उस पर बहुतों की रुचि उत्पन्न होती है। पूर्व भव में उपार्जन किये हुए पुण्य के प्रमाण में जिस के पास जितना धन था वह सब माल खरीदने में लग जाने के कारण उन्हों . ने विचार किया कि अभी माल तो बहुतसा खरीदना बाकी है और धन तो खलास होगया, इसलिये अब क्या करना चाहिए ? अन्त में वे इस निश्चय पर आये कि इस सोमश्री को किसी वेश्या के घर बेच कर इसका जो द्रव्य मिले उसे परस्पर बांट लें। लोभ भी कोई अलौकिक बस्तु है कि प्राणी तत्काल ही उसके वश हो जाता है। उन्होंने उस नगर में रहने वाली बड़ी धनवान विभ्रवती नामा वेश्या के घर सोमश्री को एक लाख द्रव्य लेकर बेच डाली और उस धन का माल खरीद कर सहर्ष वे अपने देश में चले गये। इधर उस वेश्या ने सोमश्री का नाम बदल कर दूसरा सुवर्णरेखा नाम रखा । अपनी कला सिखाने में निपुण उस विभ्रवती गणिका ने सुवर्णरेखा को थोड़े ही समय में गीत, नृत्य, हाव भाव, कटाक्ष, विक्षेपादि अनेक कलाएं सिखला दी। क्योंकि वेश्याओं के घर पर इनही कलाओं के रसिक आया करते हैं। जिस प्रकार वेश्या के घर जन्म लेने वाली बचपन में ही उस प्रकार के संस्कार होने से वह प्रथम से ही कुटिलता वगैरह में निपुण होती है, वैसा न होने पर भी यह सुवर्णरेखा थोड़े ही समय में ठीक वैसी ही बन गई, क्योंकि पानी में जो पस्तु मिलाई जाती है वह तद्रूप ही हो जाती है। सोमश्री ऐसी कलाकुशल निकली कि राजा ने उसके गीत नृत्यादिक कला से अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे बहुत सत्कार पूर्वक अपनी मानवन्ती चामर वीजने वाली बना ली।. . .... .. . . ... ..