Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 428
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४१७ घर बनवानके नियम पूर्वस्यां श्री ग्रहं काय, माग्नेयां च महानसं । शयनं दक्षिणस्यां तु, नैऋत्यामायुधादिकं ॥१॥ पूर्व दिशामें लक्ष्मीघर-भंडार करना, अग्नियकोन में पाकशाला रखना, दक्षिण दिशामें शयनगृह रखना, और नैऋत्यकोन में आयुधादिक याने लिपाई वगैरह की बैठक करना। भुजिक्रिया पश्चिमायां, वायव्यां धान्यसंग्रह। उत्तरस्यां जलस्थान, मैशान्यां देवतागृहं ॥२॥ पश्चिम दिशामें भोजनशाला करना, बायव्य कोनमें अनाज भरनेका कोठार करना, उत्तर दिशा में पानी रखनेका स्थान करना, ईशानकोन में इष्टदेव का मन्दिर बनाना। गृहस्य दक्षिणे वन्हिः, तोयगो निल दोपभूः। वापाप्रसदिगशो भुक्ति, धान्यार्था रोह देवभूः॥३॥ घरके दहिने भागमें अग्नि, जल, गाय बंधन, वायु, दीपकके स्थान करना, घरके वांये भागमें या पश्चिम भागमें भोजन करनेका, दाना भरनेका कोठार, गृह मन्दिर वगैरह करना। __पूर्वादि दिग्विनिर्देशो, गृहद्वार व्यपेक्षया। __भास्करोदयदिक्पूर्वा, न विज्ञेया यथातुते ॥ ४॥ पूर्वादिक दिशाका अनुक्रम घरके द्वारकी अपेक्षासे गिनना। परन्तु सूर्योदय से पूर्व दिशा न गिनना। ऐसे ही छींकके कार्यमें समझ लेना। जैसे कि सन्मुख छींक हुई हो तो पूर्व दिशामें हुई समझते हैं । घरको बांधने वाला बढ़ई, सलाट, राजकर्म कर ( मजदूर ) वगैरहको ठराये मुजब मूल्य देनेकी अपेक्षा कुछ अधिक उचित देकर उन्हें खुश रखना, परन्तु उन्हें किसी प्रकारसे उगना नहीं। जितनेसे सुख पूर्वक कुटुम्बका निर्वाह होता हो और लोकमें शोभादिक हो घरका विस्तार उतना ही करना। असंतोषीपन से अधिकाधिक विस्तार करनेसे व्यर्थ ही धन व्ययादि और आरंभादि होता है । विशेष दरवाजे वाला घर कर. नेसे अनजान मनुष्योंके आनेजाने से किसी समय दुष्ट लोगोंके आनेका भय रहता है और उससे स्त्री द्रव्यादिकका विनाश भी हो सकता है। प्रमाण किये हुये द्वार भी दृढ़ किबाड़, संकल, अर्गला, बगैरह से सुरक्षित करना। यदि ऐसा न किया जाय तो पूर्वोक्त अनेक प्रकारके दोषोंका संभव है। किवाड़ भी ऐसे कराना चाहिये कि जो सुखपूर्वक बन्द किये जायें और खुल सकें। शास्त्रमें भी कहा है कि न दोषो यत्र वेधादि, नवं यत्राखिलं दलं । बहु द्वाराणि नो यत्र, यत्र धान्यस्य संग्रहः॥१॥ पूज्यते देवता यत्र, यत्राभ्यक्षणपादराव । रक्ता जवनिका यत्र यत्रसंमाजनादिकं॥२॥ यत्र जेष्ठकनिष्ठादि, व्यवस्थासु प्रतिष्ठिता। भानवीया विशत्यंत, भोनिवो नैव यत्र च ॥३॥ दीप्यते दीपको यत्र, पालनं यत्र रोगिणां । श्रांत संवाहना यत्र, तत्र स्यात्कमलागृहं ॥४॥ जिसके घरमें वेधादिक दोष न हो, जिस घरमें पाषाण इंट वगैरह सामग्री नयी हो, जिसमें बहुतसे दरवाजे म हों, जिसमें धान्यका संग्रह होता हो, जिसमें देवकी पूजा होती हो, जिसमें जलसिंवन से घर साफ

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