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श्राद्धविधि प्रकरण सयलाणथ्थ निमिल्ल, प्रायास किलेस कारणमसार।
नाऊण घण बोध, गहु लुम्भइ यि तर अंरि ॥ ... सकल अनर्थका मूल प्रयास-क्लेशका कारण और असार समझ कर बुद्धिमान मनुष्य धनके लोभमें नहीं फसता। दुहरूवं दुक्ख फलं दुहागु बंधि बिडम्वणा रूवं ।
संसारपसार जाणि, ऊण नरइ तहिं कुणई ॥७॥ दुःखरूप दुःखका ही फल देनेवाले, दुःखका अनुबन्ध कराने वाले, बिडंबना रूप संसार को असार जान कर उसमें प्रीति न करे, खणमित्त सुहे विसए, विसोवमाणे सयाविमन्नतो।
तेमुन करेइ गिद्धि, भवभीरू मुणिम तत्तथ्यो॥८॥ क्षणिक सुख देने वाले और अन्तमें विषके समान दारुण फल देने वाले विषय सुखको समझ कर तत्वज्ञ भवभीरु श्रावक उसमें लंपट नहीं होता। वनइ तिव्वारम्भं, कुणइ अकामोश निव्वहं तो।।
थुणइ निरारम्भजणं, दयालुओ सव्वजोवेषु ॥ ६॥ तीव्र आरम्भ का त्याग करे, निर्वाह न होने पर अनिच्छा से आरम्भ करे, सर्व जीवों पर दया रख. कर निरारम्भी मनुष्योंकी प्रशंसा करे। गिहवासं पासं मिव भावं तो वसई दुख्खिनो तम्मि।
चारित्त मोहणिज्ज, निझ्झीणियो उज्जमं कुणई ॥१०॥ गृह बासको पासके समान समझता हुआ उसमें दुःखित हो कर रहे, चारित्र मोहनीय कर्मको जीतनेका उद्यम करता रहे। __ अथ्थिक्क भाव कलिओ, पभावणा वनवाय भाईहिं।
__गुरुभत्ति जुओघि इमं, धरेइ सदसणं विमलं ॥ ११॥ आस्तिक्य भाव युक्त जैन शासन की प्रभावना, गुण वर्णन वगैरह से गुरुभक्ति युक्त हो कर बुद्धिमान निमल दर्शनको धारण करे। गड्डरिन पवाडेण, गयाणु गइमंजणं वाणांतो।
पइहरइ लोकसन्न, सुसमिख्खिम कारओ धीरो ॥१२॥ गतानुगतिकता को छोड़ कर-याने लोक संज्ञाको त्याग कर सारासार का विचार करके धीर बुद्धिमा श्रावक संसार में प्रवृत्ति करे।
नथ्थि परलोक मग्गे पयाण मन्नं जिणागमं मुत्त ।।
आगम पुरस्सर चिन करेइ तो राव किरियामओ ॥१३॥