Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 448
________________ ४३७ श्राद्धविधि प्रकरण परलोक के मार्गमें जिनागम को छोड़ कर अन्य कुछ प्रमाण नहीं है अतः आगम के अनुसार ही तमाम क्रियायें करे। अणि गहन्तो सत्ति, आया बाहाई जह बहु कुणाई । प्रायरई तहा सुपई, दाणाइ चउन्विहं धम्मं ।। शक्ति न लोप फर आत्मा को तकलीफ न हो त्यों सुमति वान श्रावक दानादि चतुर्विध धर्माचरण करे। हिमपण वज्ज किरिन, चिंतामणि रयण, दुल्लहं लहिया। सम्मं समायरन्तो, नहु लज्जइ मुद्ध हसिप्रोवि ॥ १५ ॥ चिन्तामणि रत्न समान दुर्लभ हितकारी और पाप रहित शुद्ध क्रिया प्राप्त कर उसे भली प्रकार से आचरण करते हुये यदि अन्य लोग मस्करी करें तथापि लजित न हो। देहठि ठइ निबन्धणा, धणा सयणा हार गेह माइसु । निवसइ अरत्त दुठ ठो, संसारगएसु भावेसु ॥ १६॥ शारीरिक स्थिति कायम रखने के लिये धन, स्वजन, आहार, घर वगैरह सांसारिक पदार्थों के सम्बन्धमें राग द्वेष रहित होकर प्रवृत्ति करे। उव समसार विआरो, वाहिज्जइ नेव राग दोसेहि। पझ्झथ्थोहि अकामी, असग्गई सव्वहा चयइ ॥१७॥ उपशम ही सार विचार है अतः रागद्वेष में न पड़ना चाहिये यह समझ कर हिताभिलाषी असत्य कदाग्रह छोड़ कर मध्यस्थपन को अंगीकार करता है। भावंतो अणवरयं, खणभंगुरयं सपथ्य वथ्भूणं। ___ संबंधोवि धणाइसु, वज्जइ पडिबंध संबंधं ॥१८॥ यद्यपि अनादि कालीन सम्बन्ध है तथापि समस्त वस्तुओंका क्षणभंगुर स्वभाव समझता हुआ सर्व वस्तुओं के प्रतिबन्ध का परित्याग करे। अर्थात् तमाम वस्तुओं में अनाशक्ति रख्खे । संसारविरक्तमणोभोगुवेभोगातिचि हेउत्ति। नाउं पराणुरोहा, पवलए कामभोगेसु ॥१६॥ भोगोपभोग यह कोई तृप्तिका हेतु नहीं है यह समझ कर संसारसे विरक्त मनवाला होकर स्त्री बौरह काम भोगके विषयमें भनिच्छा से प्रवर्ते। इनसत्तरसगुणजुत्ते, जिणागमे भावसावनो भणिभो। एसपुण कुसलजोगा, लहइ लहु भावसाहुस्तं ॥२०॥ इस प्रकारके सत्रह गुणयुक्त निनागम में भाव श्राक्कका स्वरूप कथन किया है। इस पुण्यानुबन्धी पुण्यके योगसे मनुष्य शीघ्र ही भाव साधुता प्राप्त करता है, यह बात धर्मरत्न प्रकरण में कथन की है। पूर्वोक्त धर्मभावनाय भाता हुआ दिन कृत्यादि में तत्पर रह कर इलामेवा निगवे यासपणे wed

Loading...

Page Navigation
1 ... 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460