Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 449
________________ nnnnnnnnnnnnnnn श्राद्धविधि प्रकरण परमठे सेसे प्रण अणठठेति” यह निग्रंथ प्रवचन ( वीतराग प्ररूपित जैनधर्म ) हो सत्य है, परमार्थ है, अन्य सब मार्ग त्यागने योग्य हैं, इस तरह जैनसिद्धान्तों में बतलाई हुई रीत्यनुसार वर्तता हुआ सब कामों में यतनासे प्रवृत्ति करे। सब कार्योंमें अप्रतिबद्ध चित्त होकर क्रमशः मोहको जीतनेमें समर्थ होकर अपर पुत्र या भाई या अन्य सम्बन्धी जन तब तक गृहभार वहन करनेमें असमर्थ हो तब तक गृहस्थावस्था । रहे या वैसे भी कितने एक समय तक गृहस्थावास में रह कर समय आने पर अपनी आत्माको समतोल कर जिनमन्दिरों में अठाई महोत्सव करके चतुर्विध संघकी पूजा सत्कार करके सार्मिक वत्सल कर और दीन हीन अनाथोंको यथाशक्ति दान देकर सगे सम्बन्धी जनोंको खास कर विधिपूर्वक सुदर्शन शेठ वगैरह के समान दीक्षा ग्रहण करे। इसलिये कहा है किसम्बरयणा मएहिं विभूसिगं जिणहरेहिं महिवलय। जो कारिज समग्गं, तोवि चर महढ ढीम ॥३॥ सर्व रत्नमय विभूषित मन्दिरोंसे समग्र भूमंडल को शोभायमान करे उससे भी बढ़ कर चारित्रका महात्म्य है। नो दुष्कर्मप्रयासो न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्वाक्यदुःखं । राजादौ न प्रणामो शनवसनधनस्थान चिंता न चैव ॥ ज्ञानाप्तिलॊकपूजापशमसुखरतिः प्रत्य मोक्षाद्यवाप्तिः। श्रामण्येमीगुणाःस्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् ॥२॥ जिसमें दुष्कर्म का प्रयास नहीं, जिससे खराब स्त्री पुत्रादिके वाक्योंसे उत्पन्न होनेवाला दुःख नहीं, जिसमें राजादिको प्रणाम करना नहीं पड़ता, जिसमें अन्न वस्त्र धन कमाने खानेकी कुछ भी चिंता नहीं, निरन्तर ज्ञामकी प्राप्ति होती है, लोक सम्मान मिलता है, समताका सुखानन्द मिलता है और परलोक में क्रमसे मोक्षादिकी प्राप्ति होती है। (ऐसा साधुपन है ) साधुपन में इतने गुण प्राप्त होते हैं इसलिये हे सद्बुद्धि वाले मनुष्यो! उसमें उद्यम करो। कदाचित किसी आलंबन से उस प्रकारकी शक्तिके अभाव वगेरह से दीक्षा लेने में असमर्थ हो तो आरम्भ का परित्याग करे। यदि पुत्रादिक घरकी संभाल रखने वाला हो तो सर्व सचित्तका त्याग करना चाहिए। और यदि वैसा न बन सके तो यथा निर्वाह याने जितना हो सके उतने प्रमाणमें सचित्त आहार वगैरह का परित्याग करके कितनेक आरम्भ का त्याग करे। यदि बन सके तो अपने लिये रांधने, रंधवाने का भी त्याग करे। इसलिये कहा है किजस्सकए आहारो, तस्सठ्ठा चेव होइ आरम्भो। प्रारम्भे पाणिवहो, पाणिवहे दुग्गइच्च व ॥१॥ जिसके लिये आहार पकाया जाता है उसीको आरम्भ लगता है, आरम्भ में प्राणीका वध होता है, प्राणीवध होनेसे दुर्गतिकी प्राप्ति होती है ।

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