Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 456
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४४५ संघ एवं गच्छ कार्य करने में अप्रमादो दूसरे शिष्य श्रीजयचन्द्र सूरि हुये कि जो दूर देशों में बिहार करके भी अपने गच्छको परम उपकार करने वाले तीसरे शिष्य श्रीभुवनसुन्दर सूरि हुये । विषममहाविद्यात्तद्विडम्बनाब्धौ तरीवट्टत्तियः ॥ विदधे यत् ज्ञाननिधि मदादिशिष्या उपाजीवन् ॥ १० ॥ जिस भुवनसुन्दर सूरि गुरु महाराज में विषम सहा विद्याओं की बिडम्बना रूप समुद्र में प्रवेश कराने वाली नाव के समान विषम पदकी टीका की है। इस प्रकारके ज्ञाननिधान गुरुको पा कर मेरे जैसे शिष्य भी अपने जीवनको सफल कर रहे हैं। एकांगा अप्येका दश गितश्च जिनसुन्दराचार्याः । निर्ग्रन्थाग्रन्थकृताः श्रीमजिनकीर्ति गुरवश्च ॥ ११ ॥ तप करनेसे एकांगी ( इकहरे शरीर वाले) होने पर भी ग्यारह अंगके पाठी चौथे शिष्य श्रीजिंनसुन्दर सूरि हुये और निर्ग्रन्थपन को धारण करने वाले एवं ग्रन्थोंकी रचना करने वाले पाँचवें शिष्य श्रीजिनकीर्ति सूरि हुये । एषां श्रीगुरूणां प्रसादतः पट- खतिथिमि ते वर्षे । 'श्रद्धविधि' सूत्रवृति व्यधत्त श्रीरत्नशेखरसूरिः ॥ १२ ॥ पूर्वोक पांच गुरुओं की कृपा प्राप्त करके संवत् १५०६ में इस श्राद्धविधि सूत्रकी वृत्ति श्रीरत्नशेखर सुरिजी ने की है । चत्र गुणसत्र विज्ञावतंस जिन हंसगणिवर प्रमुखैः । शोध न लिखनादिविधौ व्यधायी सांनिध्यमुद्युक्तैः ॥ १३ ॥ यहां पर गुणरूप दानशाला के जानकारों में मुकुट समान उद्यमी श्रीजिनहंस गणि आदि महानुभावों ने लेखन शोधन वगैरह कार्योंमें सहाय की है । विधिवैविध्याश्रुतगत नैयस्मादर्शनाच्च यत्किचित् । अत्रौत्सूत्रमसूत्रयतन्तं मिथ्यादुष्कृतं मेस्तु ॥ १४ ॥ विधि - श्रावकविधि के अनेक प्रकार देखनेसे और सिद्धान्तों में रहे हुये नियम न देखमेसे इस शास्त्र में यदि मुझसे कुछ उत्सूत्र लिखा गया हो तो मेरा वह पाप मिथ्या होवो । विधिकौमुदीति नाम्न्यां वृत्तावश्यां विलोकितैर्बणः । श्लोकाः सहस्वषट्कं सप्तशती चैकषष्ठ्याधिकाः ॥ १५ ॥ इस प्रकार इस विधकौमुदी नामक वृत्तिमें रहे हुये सर्वाक्षर गिनने से छह हजार सात सौ एकसठ श्लोक हैं। श्राद्ध हितार्थं विहिता, श्राद्ध विधिप्रकरणस्य सूत्रवृत्तिरियं । चिरं समयं जयता, नयदायिनी कृतिनाम् ॥

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