Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 445
________________ ४३४ श्राद्धविधि प्रकरण त्याग द्वार, १६ वां ब्रह्मचर्य द्वार, १७ वां प्रतिमा वहन द्वार, १८ वां चरमाराधना द्वार, ये अठारह द्वार जन्म पर्यन्त आचरण में लाने चाहिये । अब इनमें से बारहवां एवं तेरहवां द्वार बतलाते हैं। - वाल्यावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त सम्यक्त्व पालन करना एवं यथाशक्ति अणुव्रतोंका पालन करना इन दो द्वारोंका स्वरूप अर्थ दीपिका याने वन्दीता सूत्रकी टीकामें वर्णित होनेके कारण यहां पर सविस्तर नहीं लिखा है। दीक्षा ग्रहण याने समय पर दीक्षा अंगीकार करना अर्थात् शास्त्रके कथनानुसार आयुके तीसरे पनमें दीक्षा ग्रहण करे । समझ पूर्वक बैराग्य से यदि बालवय में भी दीक्षा ले तो उसे विशेष धन्य है। कहा है किधन्नाहु बाल मुणिणो, कुमार वासंमि जेउ पव्वइया। निजिणिऊण अणंगं, दुहावहं सव्वलोभाणां ॥१॥ सर्व जनोंको दुःखावह कामदेव को जीत कर जो कुमारावस्था में दीक्षा ग्रहण करते हैं उन बाल मुनियोंको धन्य है। __ अपने कर्मके प्रभावसे उदय आये हुये गृहस्थ भावको रात दिन दीक्षा लेनेकी एकाग्रता से पानी भरे इये घड़को उठानेवाली पनिहारी स्त्रीके समान सावधान हो सत्यवादि न्यायसे पालम करे अर्थात् ग्रहस्थ अपने ग्रहस्थी जीवनको दीक्षा ग्रहण करनेका लक्ष रक्ष कर ही व्यतीत करे। इसलिये शास्त्रकार भी कहते हैं कि कुर्वननेक कर्माणि, कर्मदोषैर्न लिप्यते । तल्लयेन स्थितो योगो, यथा स्त्री नीरवाहिनी ॥२॥ पानी भरने वाली स्त्रोके समान कर्ममें लीन न होने वाला योगो पुरुष अनेक प्रकार के कर्म करता हुआ भी दोषसे कर्म लेपित नहीं होता। पर पूसि रता नारी, भर्तारमनुवर्तते । तथा तत्वरतो योगी, संसार मनुक्तते ॥३॥ · पर पुरुषके साथ रक्त हुई स्त्री जिस प्रकार इच्छा रहित अपने पतिके साथ रमण करती है, परन्तु पतिमें आसक नहीं होती उसी प्रकार तत्त्वा पुरुष भी संसारमें अनासक्ति से प्रवृत्ति करते हैं इससे उन्हें संसार सेवन करते हुये भी कर्मबन्ध नहीं होता। जह नाम सुद्ध वेसा भुमंग परिकम्मणं निरासंसा। प्रज्जकल चएमि एयंमिम भावणं कुणइ ॥३॥ जैसे कि कोई विचारशील वेश्या इच्छा बिना भी भोगी पुरुषको सेवन करती है परन्तु वह मनमें यह विचार करती है कि इस कार्यका मैं कव त्याग करूगो ? वैसे ही तत्वज्ञ संसारी भी आजकल संसार का परित्याग करूगा यही भावना करता है। अहवा पउथ्थवइमा, कुल बहुमा नवसिणेहरग गया। देह ठिह माइन सरमाणा पइगुणे कुणइ ॥४॥ या जिसका पति परदेश गया हो ऐसी प्रोषित पतिका श्रेष्ठ कुलमें पैदा हुई कुल बधू नये नये प्रकार के स्नेह रंगमें रंगी हुई देहकी स्थिति रखने के लिये पतिके गुणोंको याद करती हुई समय बिताती है।

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