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चरपराना
श्रादविधि प्रकरण
मूल गाथा चेइय पडिम पइट्टा सुआई पव्वावणाय पयठवणा।
पुथ्थय लेहण वायण, पोसह सालाई कारवाणं ॥१५॥ पांच द्वारसे लेकर ग्यारह पर्यन्त (५) मन्दिर कराना, (६) प्रतिमा बनवाना, (७) प्रतिष्टा कराना, (८) पुत्रादिकको दीक्षा दिलाना, (६) पदकी स्थापना कराना, (१०) पुस्तक लिखाना और पढ़ाना, (११) पौषधशाला आदि कराना इन सात द्वारका बिचार नीचे मुजब है।
चैत्य कराना ___ मन्दिर ऊंचा शिखर, मंडपादिक से सुशोभित भरत चक्रवर्ती वगैरहके समान मणिमय, सुवर्णमय. पाषाणमय कराना एवं सुन्दर काष्ठ ईट चूना वगैरह से शक्त्यनुसार कराना। यदि वैसी शक्ति न हो तो अन्तमें न्यायोपार्जित धनसे फूसकी झोंपड़ी के समान भी मन्दिर कराना । कहा है किन्यायार्जितविशेशो पतिमान स्फोताशयः सदाचारः।
गुर्वादि मनो जिनभुवन, कारणस्याधिकारीति ॥१॥ . न्यायसे उपार्जन किये हुये धनका स्वामी बुद्धिमान निर्मल परिणाम वाला, सदाचारी, गुर्वादि की संमतिघाला, इस प्रकार का मनुष्य जिनभुवन कराने के लिये अधिकारी होता है। पाएण प्रणंत देउल, जिणपडिया कारि भामो जीवेण।
असपन्त सवित्तीए, नहु सिद्धो दसण लवोवि ॥२॥ - इस प्राणीने प्रायः अनन्त दफा मन्दिर कराये, प्रतिमायें भरवाई, परन्तु वह सब असमंजस वृत्तिसे होनेके कारण समकित का एकांश भी सिद्ध नहीं हुआ। भवणं जिणस्स न कय, नयबिंब नेव पूइमा साहु ।
दुद्धरवय न धरीभ, जम्मो परिहारीभो तेहिं ॥३॥ । जिनेश्वर भगवान के मन्दिर न बनबाये, नवीन जिनबिंब न भरवाये, एवं साधु संतोंकी सेवा पूजा नकी और दुर्धर प्रत भी धारण न किये, इससे मनुष्यावतार व्यर्थ ही गमाया। ___ यस्तुणमयीपपि कुर्टी, कुर्याद्दद्यात्तथैकपुष्पपपि।
भक्त्या परमगुरुभ्यः, पुण्यात्मानं कुलस्तस्य ॥४॥ जो प्राणी एकतृणका भी याने फँसका भी मन्दिर बंधवाता है, एक पुष्प भी भक्ति पूर्वक प्रभुको बढ़ाता है उस पुण्यात्मा के पुण्यकी महिमा क्या कही जाय ? अर्थात् वह महा लाभ प्राप्त करता है। किं पुनरुपचितदधन, शिलासमुद्धातघटितजिनभवन।।
ये कारयति शुभपति, विभानिनस्ते महाधन्याः ॥५॥