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श्राद्धविधि प्रकरण मिलता। जैसे कि लोकमें भी यही न्याय है कि बहुतसा द्रव्य बहुतसे दिनों तक किसीके पास रक्खा हो तथापि ठराव किये विना उसका जरा भी ब्याज नहीं मिलता। असंभबित वस्तुका भी यदि नियम लिया हुआ हो उसे कदापि किसी तरह उसी वस्तुके मिलनेका योग बन जाय तो नियममें बद्ध होनेके कारण वह उस वस्तुको ग्रहण नहीं कर सकता। यदि उसे नियम न हो तो वह अवश्य ही उसे ग्रहण करे। अत: नियम करनेका फल स्पष्ट ही है। जिस प्रकार गुरु द्वारा लिये हुए नियम फलमें बंधे हुए वंकचूल पल्लीपति ने भूखा रहने पर भी अटवीमें किपाक नामक फल अज्ञात होनेसे अन्य लोगों की प्रेरणा होने पर भी न खाया और उससे उसके प्राण बच गये एवं जिन अनियमित मनुष्यों ने उन फलोंको खाया वे सब मरणके शरण हुए अतः नियम लेनेसे महान लाभकी प्राप्ति होती है।
प्रति चातुर्मासिक इस उपलक्षणसे एक एक पक्षमें, एक एक महीनेमें, दो दो मासमें, तीन तीन महीने, या एकेक दो दो वर्ष बगैरह के यथाशक्ति नियम स्वीकार करने योग्य हैं। जो जितने महीने वगैरह की अवधि पालनेके लिये समर्थ हो उस उस अवधिके अनुसार समुचित नियम अंगीकार करे। परन्तु नियम रहित एक क्षणमात्र भी न रहे । क्योंकि विरतिका महाफल होता है और अविरतिका वहु कर्मबन्धादि महादोषादिक पूर्व में बतलाये अनुसार होता है। यहां पर जो पहले नित्य नियम कहा गया है उसे चातुर्मास में विशेषतः करना चाहिए। जिसमें तीन दफा या दो दफा जिनपूजा करना, अष्टप्रकारी पूजा करना, संपूर्ण देववंदन, जिनमंदिर के सर्व बिम्बकी पूजा, सर्व बिम्बोंको बन्दन करना, स्नान, महापूजा प्रभावनादि गुरुको वृहद् वन्दन करना, सर्व साधुओंको वन्दन करना चोबीस लोगस्सका काउसम्ग करना अपूर्व ज्ञानका पाठ या श्रवण करना; विश्रामणा करना, ब्रह्मचर्य पालन करना, सचित्र वस्तुका परित्याग करना, विशेष कारण पड़ने पर औषधादिक शोधनादि यतनासे ही अंगीकार करना, यथाशक्ति चारपाई पर शयन करनेका परित्याग करना, बिना कारण स्नान त्याग करना, वाल गुथवाना दंतवन करना और काष्टकी खड़ाओं पर चलनेका परित्याग करना वगैरह का नियम धारण करना । एवं जमीन खोदने, नये वस्त्र रंगाने, ग्रामान्तर जाने वगैरह का त्याग करना । घर, दुकान, भीत, स्तंभ, चारपाई, किवाड़, दरवाजा बगैरह पाट, चौकी, घी, तेल, जलादिके वर्तन, इन्धन, धान बगैरह तमाम वस्तुओंमें रक्षाके निमित्त पनकादि संसकि-निगोद या काई न लगने देनेके लिये चूना, राख, खड़ी, मैल न लगने देना, धूपमें रखना, अधिक ठंडक हो वहां पर न रखना; पानीको दो बफा छानना वगैरह, घी, गुड़, तेल, दूध, दही, पानी, वगैरहको यत्न पूर्वक ढक कर रखना, अवश्रावण (चावल वगैरहका धोक्न तथा बर्तनोंका धोवन या रसोई में काममें आता हुआ वचा हुआ पानी) स्नान वगैरह के पानी आदिको जहां पर लीलफूल याने निगोद न हो वैसे स्थानमें डालना । सूकी हुई या धूल वाली, हवा वाली, जमीन पर थोड़ा थोड़ा डालना चुलहा, दीया, खुला हुआ न रखनेसे पीसने, खोटने, रांधने, वस्त्र धोने, पात्र धोने वगैरह कार्यों में भले प्रकारसे यत्ना करके तथा मन्दिर, पौषधशाला वगैरह को भी वारंवार देखते रहनेसे सार सम्भाल रखनेस यथा योग्य यतना करना। यथाशक्ति उपधान मालादि पडिमा वहम, कषाय जय, इन्द्रियजय, योगशुद्धि विंशति स्थानक, अमृत अष्टमी, ग्यारह अंग, चौदह पूर्व तप, नवकार फलतप, चोक्सिी तप, अक्षयनिधि