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श्राद्धविधि प्रकरण प्राकं पइत्ता अणुमाण इत्ता, जं दिळं वाहिर व सुहुसंवा।
छन्नं सदाउलय, बहुजणं प्रवत्ततं सेवी ॥१२॥ १ यदि मैं गुरु महाराज की वैयावञ्च सेवा करूंगा तो मुझे प्रायश्चित्त तप कम देंगे इस आशय से गुरुकी अधिक सेवा करके आलोयण ले इसे 'आकंप' नामक प्रथम दोष समझना।
२ अमुक आचार्य सबको कमती प्रायश्चित्त देते हैं इस अनुमान से जो कम प्राश्चित्त देते हों उनके पास जाकर आलोचना करे इसे 'दूसरा अनुमान दोष समझना चाहिए।
__३ जो जो दोष लगे हुए हैं उनमें से जितने दोष दूसरों को मालूम हैं सिर्फ उतने ही दोषोंकी आलोचना करे। परन्तु अन्य किसी ने न देखे हुए दोषोंकी आलोचना न करे, उसे तीसरा दृष्ट दोष कहते हैं।
४ जो जो बड़े दोष लगते हैं उनकी आलोचना करे परन्तु छोटे दोषोंकी अवगणना करके उनकी आलो. चना ही न करे उसे बादर' नामक चौथा दोष समझना चाहिए।
५ जिसने छोटे दोषोंकी आलोचना की वह बड़े दोषों की आलोचना किये बिना नहीं रह सकता इस प्रकार बाहर से लोगोंको दिखला कर अपने सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना ले वह 'पांचवां सूक्ष्म दोष' कहलाता है।
६ गुप्त रीति से आकर आलोचना करे या गुरु न सुन सके उस प्रकार आलोचे यह 'छन्न दोष नामक छटा दोष समझना।
शब्दाकुल के समय आलोचना करे जैसे कि बहुत से मनुष्य बोलते हों, बीचमें स्वयं भी बोले अथवा जैसे गुरु भी वराबर न सुन सके वैसे बोले अथवा तत्रस्थ सभी मनुष्य सुनें वैसे बोले तो वह 'शब्दाकुल' नामक सातवां दोष समझना।
बहुत से मनुष्य सुन सकें उस प्रकार बोलकर अथवा बहुत से मनुष्यों को सुनाने के लिये ही उच्च स्वरसे अलोचना करे वह 'बहुजन नामक आठवां दोष कहलाता है।
६ अव्यक्त गुरुके पास आलोवे याने जिसे छेद ग्रन्थोंका रहस्य मालूम न हो वैसे गुरुके पास जाकर आलोचना करे वह 'अव्यक्त' नामक नवम दोष समझना चाहिए।
१० जैसे स्वयं दोष लगाये हुए हैं वैसे ही दोष लगाने वाला कोई अन्य मनुष्य गुरुके पास आलोचना करता हो और गुरुने उसे जो प्रायश्चित्त दिया हो उसकी धारणा करके अपने दोषोंको प्रगट किये बिना स्वयं भी उसी प्रायश्चित्त को करले परन्तु गुरुके समक्ष अपने पाप प्रगट न करे अथवा खरंट दोष द्वारा आलोचना करे (स्वयं सत्ताधीश या मगरुरी होनेके कारण गुरुका तिरस्कार करते हुए आलोचना करे ) या जिसके पास अपने दोष प्रगट करते हुए शरम न लगे ऐसे गुरुके पास जाकर आलोचना करे वह 'तत्सेवी' नामक दसवां दोष समझना चाहिए । आलोयण लेने वालेको ये दशों ही दोष त्यागने चाहिए। . .