Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 417
________________ ४०६ श्राद्धविधि प्रकरण ____ऊपर लिखे मुजब पार्श्वस्थादिक के अभावमें जहां राजगृही नगरी है, गुणशील चैत्य है, जहां पर अर्हन्त गणधरादिकों ने बहुतसे मुनियोंको बहुतसी दफा, आलोयण दी हुई है. वहांके कितने एक क्षेत्राधिपति देवताओंने वह आलोयणा वारंवार देखी हुई है और सुनी हुई है उसमें जो सम्यक्धारी देवता हों उनका अष्टमादिक तपसे आराधन करके (उन्हें प्रत्यक्ष करके) उन्होंके पास आलोयण लेना । कदापि वैसे देवता च्यव गये हों और दूसरे नवीन उत्पन्न हुए हो तो वे महाविदेह क्षेत्रमें विद्यमान तीर्थंकरको पूछकर प्रायश्चित्त दे। यदि ऐसा भी योग न बने तो अरिहन्तकी प्रतिमाके पास स्वयं प्रायश्चित्त अंगीकार करना । यदि वैसी किसी प्रभाविक प्रतिमाका भी अभाव हो तो पूर्व दिशा या उत्तर दिशाके सन्मुख अरिहन्त, और सिद्धको साक्षी रख कर आलोयण लेना। परन्तु आलोचना बिना न रहना। क्योंकि सशल्यको अनारग्धक कहा है। इसलिये अगियो नवि जाणई, सोहिं चरणस्स देइ ऊणहि। , तो अप्पाणं पालोअगं, च पाउँई संसारे॥७॥ चारित्रकी शुद्धि अगीतार्थ नहीं जानता, कदापि प्रायश्चित्त प्रादन करे तो भी न्यूनाधिक देता है उससे चायश्चित्त लेने वाला और देनेवाला दोनो ही संसारमें परिभ्रमण करते हैं। जह वालो जंपतो, कझझमकच उज्जुधे भणइ ॥ तह तं पालोइज्जा, पायायय विप्प मुक्की अ॥८॥ जिस तरह बालक बोलता हुआ कार्य या अकार्यको सरलतया कह देता है वैसे ही आलोयण लेने वाले को सरलता पूर्णक आलोचना करनी चाहिए । अर्थात् कपट रहित आलोचना करना। मायाई दोसरहिमओ, पइसमयं बढमाण संवेगो। भालोइज्जा अकज, न पुणो काहिति निच्छयो॥६॥ मायादिक दोषसे रहित होकर जिसका प्रतिक्षण वैराग्य बढ रहा है, ऐसा होकर अपने कृत पापकी आलोचना करे। परन्तु उस पापको फिर न करनेके लिये निश्चय करे। लज्जा इगार वेर्णा, वहुस्सुम मरण वाविदुचरिय। जोन कहेइ गुरुणां, नहु सो पाराहगो भणियो॥१०॥ जो मनुष्य लज्जा से या बड़ाईसे किंवा इस खयालसे कि मैं बहुत ज्ञानवान हूं, अपना कृत दोष गुरुके समीप यदि सरलतया न कहे तो सचमुच ही वह आराधक नहीं कहा जासकता। यहां पर रसगारव, ऋद्धि गारव और साता गारवमें चेतनवद्ध हो तो उससे तप नहीं कर सकता और आलोयण भी नहीं ले सकता। अपशब्द से अपमान होनेके भयसे, प्रायश्चित्त अधिक मिलने के भयसे, आलोपण नहीं ले सकता। ऐसा समझना। संवेग पर चितं, काउणं तेहिं तेहिं सुरोहिं । सल्लाणुद्धरण विवाग, देसगाइहिं पालोए ॥११॥ . उस उस प्रकार के सूत्रके बका सुनाकर, विपाक दिखला कर, वैराग्य वासित चित्त करके सल्लिका उद्धरण करने रूप आलोयण करावे । आलोयण लेने वालेको दश दोष रहित होना चाहिये।

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