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श्राद्धविधि प्रकरण झानादि पंचविध आचार वाद, आलोयणा लेने वालेने जो अपने दोष कह सुनाए हैं उन पर चारो तरफका विचार करके उसकी धारणा करे वह आधार वान, आगमादि पांच प्रकारके व्यवहारको जानता हो उसे आगम व्यवहारी कहते हैं। उसमें केवली, मनः पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वी, दस पूर्वी, और नव पूर्वी तक ज्ञानवान आगम व्यवहारी गिने जाते हैं । आठ पूर्वसे उतरते एक पूर्वधारी, एकादशांगधारी, अंतमें निशीथादिक श्रुतका पारगामी श्रुत व्यवहारी कहलाता है। दूर रहे हुए आचार्य और गीतार्थ यदि परस्पर न मिल सकें तो परस्पर उन्हें पूछकर एक दूसरेको गुप्त सम्मति ले कर जो आलोयणा देता है वह आज्ञाव्यवहारी कहा जाता है। गुरु आदिकने किसीको आलोयणा दी हो उसको धारणा कररखनेसे उस प्रकार आलोयणा देनेवाला धारणा व्यवहारी कहलाता है। आगममें कथन की हुई रीतिसे कुछ अधिक या कम अथवा परम्परासे आचरण हुआ हो उस प्रकार आलोयण दे सो जीतव्यवहारी कहलाता है।
इन पांच प्रकारके आचारको जानने वाला व्यवहार वान कहा जाता है। आलोयणा लेने वालेको ऐसी वैराग्यकी युक्तिसे पूछे कि जिससे वह अपना पाप प्रकाशित करते हुए लजित न हो। आलोयण लेनेवाले को सम्यक प्रकारसे पाप शुद्धि कराने वाला प्रकूर्वी कहलाता है । आलोयण लेने वालेका पाप अन्यके समक्ष न कहे वह अपरिश्रावी कहलाता है। आलोयणा लेने वालेकी शक्ति देखकर वह जितना निर्वाह कर सके वैसा ही प्रायश्चित्त दे वह निर्वाक कहलाता है। यदि सचमुच आलोयणा न ले और सम्यक आलोयणा न वतलावे तो वे दोनों जने दोनों भवमें दुःखी होते हैं। इस प्रकार विदित करे वह आपायदर्शी कहलाता है। इन आठ प्रकारके गुरुओंमें अधिक गुणवानके पास आलोयणा लेनी चाहिये। पायरिया इसगच्छे, संभोइन इअर गीन पासथ्यो । सारुवी पच्छाकड, देवय पडिमा परिह सिद्धि ॥६॥
साधु या श्रावकको प्रथम अपने अपने गच्छोंमें आलोचना करना, सो भी आचार्यके समीप आलोचना करना। यदि आचार्य न मिले तो उपाध्यायके पास और उपाध्यायके अभावमें प्रवर्तकके पास एवं स्थविर, गणावच्छेदक, सांभोगिक, असांभोगिक, संविज्ञ गच्छमें ऊपर लिखे हुए क्रमानुसार ही आलोचना लेना। यदि पूर्वोक्त व्यक्तिओंका अभाव हो तो गीतार्थ पासथ्याके पास आलोयण लेना। उसके अभावमें सारूपी गीतार्थके पास रहा हुआ हो उसके पास लेना, उसके अभावमें गीतार्थे पश्चात्य कृत्य गीतार्थ नहीं परन्तु गीतार्थके कितवे एक गुणोंको धारण करने बालेके पास लेना। सारूपिक याने श्वेत कल धारी, मुंड, अबद्ध कच्छ, (लांग खुल्ली रखने वाला ) रजोहरण रहित, अब्रह्मचारी, भार्या रहित, भिक्षा माही।, सिद्ध पुत्र तो उसे कहते हैं कि जो मस्तक पर शिखा रक्खे और भार्या सहित हो। पश्चात्कृत उसे कहते हैं कि जिसने चारित्र और केर छोड़ा हो। पार्श्वस्थादिक के पास भी प्रथमसे गुरु बंदना विधिके अनुसार का करके, विनयमूल धर्म है इस लिये विनय करके उसके पास आलोयणा लेना। उसमें भी पार्श्वस्थादिक पनि स्वयं ही अपने हीन गुणों को देखकर बन्दता प्रमुख न करावे तो उसे एक आसन पर बैठा कर प्रणाम मात्र करके आलोचना करना। पश्चात्कृत को तो थोडे कालका सामायिक आरोपण करके (साधुका वेष देकर ) विधि पूर्णक आलोचना कारखा।